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मनोकामनाओं की कोई अंतिम सीमा नहीं होती

मन कभी इस वस्तु को आवश्यक बताता है तो कभी दूसरी वस्तु को। एक के पूरी होते ही और नवीन आवश्यकताएं उत्पन्न हो जाती हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 18 Feb 2017 10:30 AM (IST)Updated: Sat, 18 Feb 2017 10:35 AM (IST)
मनोकामनाओं की कोई अंतिम सीमा नहीं होती
मनोकामनाओं की कोई अंतिम सीमा नहीं होती

सभ्यता और महानता का प्रधान प्रतीक सादगी है। संसार भर के अधिकतर महापुरुषों को व्यक्तिगत जीवन

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में अभाव, निर्धनता और गरीबी आदि से सामना करना पड़ा। तमाम अवरोधों के बाद इन महापुरुषों की सुख-शांति नष्ट नहीं हुई। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी आवश्यकताएं उतनी ही रखें जिन्हें सीमित आय में पूरा किया जा सके। सादगी का व्यवहार व सिद्धांत मात्र व्यक्तिगत जीवन में ही उपयोगी नहीं है, बल्कि सामाजिक सुव्यवस्था के लिए भी अति महत्वपूर्ण है।

सादगी से रहने वाले मनुष्य समाज के विकास में अपना योगदान दे सकते हैं। महात्मा गांधी, महामना मालवीय, विनोबा भावे, सरदार पटेल और गुरु गोलवलकर जैसी शख्सियतों ने अपने जीवन में सादगी का समावेश करके बचे हुए श्रम, समय और मनोयोग से राष्ट्र की अविस्मरणीय सेवा की। यूनानी सभ्यता को लोग आज सुकरात और अरस्तू के कारण जानते हैं। इन महापुरुषों के संदर्भ में प्रचलित है कि वे ताउम्र बड़े मितव्ययी व अल्पसंतोषी रहे थे। एक बार अरस्तू से किसी ने पूछा कि आप थोड़े से साधन-संपत्ति में किस प्रकार सुखपूर्वक रह लेते हैं? लोगों को अपनी आवश्यकताओं के साधन जुटाने से ही अवकाश नहीं मिलता और आप कोई साधन न रहते हुए भी साधन-संपन्न लोगों से अधिक सुखी हैं और आध्यात्मिक चिंतन भी कर लेते हैं। इस पर अरस्तू ने उत्तर

दिया कि जहां तक आवश्यकताओं का संबंध है, मैं उन्हें कम-से-कम रखता हूं और उन्हें बढ़ाता नहीं हूं। मेरी कसौटी पर जो खरा उतर जाता है उन्हें ही पूरा करना उचित समझता हूं, अन्यथा उन्हें अपनी सूची से अलग हटा देता हूं।

सादगी अपनाने का वस्तुत: मूल उद्देश्य यह है कि हम अपनी कार्यक्षमता बढ़ा लें और अधिक से अधिक कार्य

करें। इसका अर्थ यह नहीं है कि इस तरह की सादगी अपनाने से मनुष्य पुन: शताब्दियों पीछे का जीवन जीने लगेगा तब जो साधन विज्ञान ने उपलब्ध कराए हैं वे भी अनुपयुक्त हो जाएंगे। सादगी वस्तुओं या साधनों के उपयोग से नहीं रोकती, वह तो केवल दृष्टिकोण भर बदलती है और साधनों को और उपयोगी बनाती है। एक बात और आवश्यकताओं का जन्म मनोकामनाओं से होता है। मन कभी इस वस्तु को आवश्यक बताता है तो कभी दूसरी वस्तु को। एक के पूरी होते ही और नवीन आवश्यकताएं उत्पन्न हो जाती हैं। मनोकामनाओं की कोई अंतिम सीमा नहीं होती।


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