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कब, मृत्यु का भय खत्म हो जाता है

किसी भी कीमत पर किसी भी स्थिति में जीते चले जाने की इच्छा को ही जीवेषणा कहते हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो शरीर के साथ उत्पन्न हुए अतिरिक्त मोह को, हमारा शरीर सतत बना रहे और कभी समाप्त न हो, ऐसी कामना का आधार ही जीवेषणा है। शरीर नश्वर

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 28 Mar 2015 01:21 PM (IST)Updated: Sat, 28 Mar 2015 01:23 PM (IST)
कब, मृत्यु का भय खत्म हो जाता है
कब, मृत्यु का भय खत्म हो जाता है

किसी भी कीमत पर किसी भी स्थिति में जीते चले जाने की इच्छा को ही जीवेषणा कहते हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो शरीर के साथ उत्पन्न हुए अतिरिक्त मोह को, हमारा शरीर सतत बना रहे और कभी समाप्त न हो, ऐसी कामना का आधार ही जीवेषणा है। शरीर नश्वर है। हम किसी न किसी को रोज मरते देखते हैं। उस क्षण मन में हमें एकबारगी कंपन का अहसास होता है।

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ऐसा क्यों होता है? क्या हमने कभी सोचा है? वास्तव में ऐसा हमारे द्वारा शरीर के साथ किए गए तादात्म्य के कारण होता है। हम शरीर के साथ ऐसे एकाकार हो गए हैं कि शरीर को ही स्वयं यानी चेतना मान लिया है। हमारी सत्ता शरीर से भिन्न है और हमें शरीर को उपकरण की तरह उपयोग में लाना है, लेकिन इस बात को हम मानें भी तो कैसे? जब हमारे अनुभव में ये बात आती ही नहीं कि हमारी सत्ता शरीर से भिन्न है। हम इस शरीर को केवल अपना ठिकाना बनाए हुए हैं। शरीर को स्वयं की सत्ता समझ लेने का भ्रम ही हमें यह अहसास कराता है कि मृत्यु के साथ हम स्वयं समाप्त हो जाएंगे। यही नहीं बल्कि शरीर के तादात्म्य के कारण ही हमें युवा, अधेड़ व वृद्ध होने का अहसास होता है। जबकि मन की गति को जरा रोककर अगर हम आत्मस्थित होने की चेष्टा करें, तो हमें अहसास होगा कि हमारे भीतर वह चेतना मौजूद है जो न युवा होती है और न ही वृद्ध। शरीर हमसे भिन्न है और ऊपर-ऊपर ही बदलता है।

चेतना की न तो कोई उम्र होती है और न ही वह नष्ट होती है। नित्य मिल रही जानकारियों और सूचनाओं को हम अपनी स्मृति में एकत्र करते जाते हैं। इस बौद्धिक विकास को ही हम अपना विकास यानी युवा होना, वृद्ध होना और इसका विनाश ही मृत्यु मान लेते हैं। ऐसा स्वाभाविक है। जब तक हमें उस तत्व की झलक नहीं मिलती, जो इस शरीर की वृद्धि व तर्क-वितर्क में उलङो मन के पार है और किसी भी स्थिति में उसके नष्ट होने का कोई उपाय नहीं, तब तक हम शरीर की नश्वरता के पार नहीं जा सकते। वह चेतन तत्व जो हम ही हैं, हमारी ही परम् सत्ता है, इसका अहसास होते ही शरीर से हमारा तादात्मय टूटना आरंभ हो जाता है और मृत्यु भय समाप्त होता चला जाता है। अंतत: यह पता चलता है कि मृत्यु एक खेल है। इस मनोदशा में व्यक्ति के अंतर्मन में मौजूद मृत्यु का भय खत्म हो जाता है।


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