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जीवन क्या है

प्राचीन काल से हमारा जीवन रहस्यमय बना हुआ है। इस जीवन को जानना जितना प्राचीन काल में कठिन था, उतना आज भी है। कुछ लोग इस शरीर को जीवन मान लेते हैं और उसकी जैविक व्याख्या करने लगते हैं। कुछ लोग जीवन की आंतरिक प्रक्रिया में उलझ जाते हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 28 Apr 2015 11:03 AM (IST)Updated: Tue, 28 Apr 2015 11:06 AM (IST)
जीवन क्या है
जीवन क्या है

प्राचीन काल से हमारा जीवन रहस्यमय बना हुआ है। इस जीवन को जानना जितना प्राचीन काल में कठिन था, उतना आज भी है। कुछ लोग इस शरीर को जीवन मान लेते हैं और उसकी जैविक व्याख्या करने लगते हैं। कुछ लोग जीवन की आंतरिक प्रक्रिया में उलझ जाते हैं।

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जीवन के संदर्भ में विचार करने वाले जितने भी विचारक आज तक हुए हैं, उन्होंने अपनी-अपनी तरह से व्याख्या की है। जीवन क्या है, जगत क्या है, जगत का नियंता कौन है, ये प्रश्न आज भी उलझे हुए हैं, लेकिन जो लोग तत्ववेत्ता हैं, उन लोगों ने अपनी आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत कर इस जीवजगत के रहस्यों को जानने का प्रयास अवश्य किया है। हमारे आध्यात्मिक संतों के चिंतन का आधार यही है कि जब मूल प्रकृति से जीवन अलग होकर शरीर में प्रवेश करता है, तो उस शरीर की पात्रता, योग्यता और क्षमता की जांच अवश्य करनी चाहिए।

हिंदू धर्म-दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जीवात्मा शरीर को माध्यम बनाकर परमतत्व या परमानंद को प्राप्त करना चाहता है। इसलिए जीवात्मा को स्वयं प्रबुद्ध और चैतन्य बनना पड़ता है। जीवात्मा तभी तक स्वस्थ विचरण कर सकता है जब शरीर स्वस्थ और प्रसन्न रहे। बीमार शरीर स्वस्थ जीवात्मा को धारण नहीं कर सकता। इसलिए प्राचीन काल से यह अनुभव किया गया कि शरीर आत्मा नहीं है, फिर भी शरीर को नैतिक आचरण करते हुए स्वस्थ रहना पड़ेगा, तभी आत्म धर्म की रक्षा हो सकती है।

सबसे पहले आत्मा की रक्षा करनी चाहिए, यही धर्म है। यहां आत्मा की रक्षा का अर्थ है, शरीर की रक्षा। ऐसा इसलिए, क्योंकि आप आत्मा की रक्षा तो कर नहीं सकते, अपने शरीर की रक्षा करेंगे तो स्वत: आत्मा की रक्षा हो जाएगी। जीवात्मा पंचभूतों से निर्मित इस भौतिक शरीर में कैद है। शरीर के बगैर आत्मा के होने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए शरीर धर्म का निर्वाह करने वाले लोग ही शरीर धर्म, आत्म धर्म, और परमात्म धर्म का निर्वाह कर सकते हैं। आत्म धर्म के लिए तो आत्मिक चेतना की आवश्यकता पड़ती है। यह चेतना आत्मचिंतन से बढ़ती है। दूसरी ओर शरीर धर्म का पालन तभी हो सकता है, जब जिन भौतिक तत्वों से शरीर बना है, उन भौतिक तत्वों का संतुलन हमारे शरीर में बना रहे, क्योंकि जब शरीर बीमार पड़ता है, तो इसका एक ही कारण होता है कि शरीर में जो मूल भौतिक तत्व हैं उनका संतुलन बिगड़ चुका है।


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