हम मनुष्यों का जीवन अत्यंत मूल्यवान है
जीवनभर भौतिक लक्ष्य प्राप्त करने की कामना करना और लक्ष्य प्राप्त कर लेने भर से अपने अहं को पोषित करना, इससे मनुष्य के कर्तव्यों का निर्वाह नहीं होगा।
हम मनुष्यों का जीवन अत्यंत मूल्यवान है। इतिहास में मानव जीवन के उद्भव के बारे में अनेक वर्णन हैं। इस संबंध में वैज्ञानिकों और आध्यात्मिक विचारकों के विचारों में सदैव मतभेद रहे हैं। वैज्ञानिक बंधु मनुष्य के अतिरिक्त संपूर्ण जीवन-जगत के बारे में विज्ञान आधारित तथ्य और अवधारणाएं प्रकट करते हैं। जबकि आध्यात्मिक विचारकों की दृष्टि में संपूर्ण जीव-जंतुओं से भरी इस सृष्टि का संचालन ईश्वरीय शक्ति से हो रहा है। जब मानव विवेक स्थिर होकर परिपक्वता ग्रहण करता है तो उसमें आध्यात्मिकता से सहमत होने का गुण उत्पन्न होता है। इस वैचारिक परिवर्तन की स्थिति में व्यक्ति स्वयं सोचता है कि ज्ञान-विज्ञान की योग्यता अभी तक धरती पर किसी को अमर नहीं कर सकी।
विज्ञान भौतिक जीवन को निरंतर नए-नए मापदंडों से भले ही परिभाषित कर रहा है, लेकिन उसमें मृत्यु के बाद के रहस्य को सुलझाने की क्षमता नहीं है। मानव अपने निधन के बाद की स्थिति के लिए जीवन में एक न एक बार अवश्य विचार करता है। यह विचार हो भी क्यों नहीं! आखिर एक मनुष्य के खत्म होने के साथ ही उसकी पूरी दुनिया जो खत्म हो जाती है। जब सभी मानवों को एक दिन सशरीर इस लोक से अदृश्य हो जाना है तो सभी मानव जीवित रहते हुए अपने अदृश्य होने के रहस्य के लिए अवश्य विचलित होंगे। इस विचार-बिंदु पर मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह स्थिर रहकर अपने अभिबोध से जुड़े।
यह कार्य केवल आध्यात्मिक संबल के साथ संपन्न किया जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम मनुष्य को अपने मानवीय कर्तव्यों में रचना-बसना होगा। मानवीय कर्तव्य से आशय समाज की चेतना से जुड़ना होगा। दुख, दरिद्रता, कष्ट, यातना भोग रहे मनुष्यों का सहायक बनना होगा। जीवनभर केवल अपने भौतिक लक्ष्य प्राप्त करने की कामना करते रहना और लक्ष्य प्राप्त कर लेने भर से अपने अहं को पोषित करना, इससे मनुष्य के कर्तव्यों का निर्वाह नहीं होगा। समाज में अपने जैसे मानवों के मध्य जीवन के मूलभूत सिद्धांत ‘मानवता’ की अलख जगानी होगी। तब यह विश्वास के साथ माना जाना चाहिए कि जिस काल में धरती मानवता के विचार से फलीभूत होगी, उस समयकाल में मानव-जीवन अमरत्व का कुछ रहस्य अवश्य प्राप्त कर लेगा।