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अन्ततोगत्वा सुख इसी से मिलता है

जिन कार्यो से आत्म संतुष्टि मिले, वे ही सद्कर्म हैं और सद्गुणों के प्रतीक हैं। इनसे ही जीवन का प्रवाह बना रहता है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 20 May 2016 10:45 AM (IST)Updated: Fri, 20 May 2016 12:20 PM (IST)
अन्ततोगत्वा सुख इसी से मिलता है
अन्ततोगत्वा सुख इसी से मिलता है

परिस्थितियां कैसी भी विषम क्यों न हों राह पर चलते जाना ही धर्म है। गुण स्वभाव का अंग हो जाते हैं तभी उन्हें गुण कहा जाता है। स्थितियों के अनुसार उन्हें अपनाना या त्याग देना सबसे बड़ा अवगुण है। शीतलता चंदन का गुण है, जो हर हाल में बना रहता है।
चंदन के पेड़ पर कितने ही विषैले सांप लिपटे हों, उसकी शीतलता बनी रहती है। यदि एक वृक्ष अपने गुणों पर इस तरह दृढ़ रह सकता है तो मनुष्य क्यों नहीं, जिसे ईश्वर ने बौद्धिक चेतना प्रदान कर उसे जीवों में विशिष्ट बना दिया है। कदाचित मनुष्य ही इसे समझ नहीं पा रहा है कि विचार और आचार की शुद्धता ही जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य और उपलब्धि है। दया, परोपकार, क्षमा, दान और साहचर्य जैसे तत्व मनुष्य की रचना में ही समाहित हैं और उन पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे यह तन बना है। इनसे विरत होना अपने संरचनात्मक स्वभाव से दूर जाना है। भूमि, जल, वायु, अग्नि और क्षितिज एक साथ बने रहते हैं तो सृष्टि का अस्तित्व है और मनुष्य का भी। इनका असंतुलन यदि सृष्टि को विनाश की ओर ले जाने वाला है तो मनुष्य को भी। जीवन में तमाम विषधारी समस्याओं से सामना होता रहता है। मनुष्य का धर्म है कि सहज रहकर अपने गुणों से उनसे पार पाने की चेष्टा करे।
किसी का भी जीवन कभी भी निष्कंटक नहीं रहा है। संसार में जो महापुरुष हुए हैं, उन्होंने भी असीम दुख सहे। उनके मार्ग में रोंगटे खड़े कर देने वाली बाधाएं आईं, किंतु वे अविजित रहे तो अपने सद्गुणों के कारण। इसीलिए आज उनकी पूजा होती है। मनुष्य को उसके कर्मो के अनुसार ही फल मिलना है। यदि बबूल बोया है तो अंगूर कहां से मिलेंगे। अंगूर पाने के लिए अंगूर की ही खेती करनी पड़ेगी। हर मनुष्य को जीवन में सम्मान और प्रतिष्ठा चाहिए।
माना जाता है कि अन्ततोगत्वा सुख इसी से मिलता है। धन, संपदा, कुल, वंश, ज्ञान, पद की प्राप्ति का मनोरथ तो समाज में सम्मान और आदर पाना ही है। सद्गुणों से प्राप्त सम्मान स्थाई रहता है, किंतु ऐसा मनुष्य उस आत्मिक अवस्था को प्राप्त कर चुका होता है जहां मान, अपमान, निंदा और स्तुति उसके लिए बेमानी हो जाते हैं। मात्र अपने कर्म करते जाने में ही उसे असीम आनंद मिलता है। जिन कार्यो से आत्म संतुष्टि मिले, वे ही सद्कर्म हैं और सद्गुणों के प्रतीक हैं। इनसे ही जीवन का प्रवाह बना रहता है।


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