सत्य सदैव एकरूप में स्थित रहता है
सत्य सभी नैतिक मूल्यों का आधार है। विश्वास, ईमानदारी, दया, करुणा, परोपकार, प्रेम और अ¨हसा आदि गुण सत्य पर ही आश्रित है।
सत्य सदैव एकरूप में स्थित रहता है। वह किसी भी काल, किसी भी युग, किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होता। वह शांत प्रकाशमान तत्व सदैव एक समान बना रहता है। यानी जो अपरिवर्तनशील है वही सत्य है। और वह अपरिवर्तनशील तत्व नित्य, शुद्ध परमात्मा है, जो समस्त देहधारियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है।
उसी परमात्मा ने सारे जगत को धारण कर रखा है और सारा जगत उसी के भीतर व्याप्त है। सभी शरीरों के अंदर रहते हुए भी कोई उसे जान नहीं पाता। वह इसलिए कि उसी की सत्ता से सारे शरीर प्रकाशमान होते हैं। उसी चेतन सत्ता के कारण मन-बुद्धि इंद्रियां क्रियाशील होती हैं। सभी शरीरधारियों में मानव देह ही मात्र साधन धाम कहलाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि समस्त शरीरों में चाहे वह मनुष्य का हो अथवा किसी अन्य का, सभी में आहार, निद्रा, भय और मैथुन एक समान रूप से स्थित रहते हैं, लेकिन मनुष्य को ईश्वर ने अतिरिक्त एक अन्य गुण भी प्रदान किया है वह है विवेक। परमात्मा ने मनुष्य को प्रधानता प्रदान करते हुए उसे विवेकशील प्राणी बनाया है। जो व्यक्ति अपने उसी विवेक का प्रयोग कर सार-आसार का विभेदन करता हुआ विश्वरूप परमात्मा की शरण में जाता है तो ईश्वर के कृपा रूपी प्रसाद को प्राप्त कर उस परम सत्य क साक्षात्कार कर लेता है।
दूसरी ओर ईश्वर रचित माया (प्रकृति) चंचल, अनित्य और परिवर्तनशील है। सदैव परिवर्तन की क्रिया चलती रहती है। पंच महाभूतों आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों का संश्लेषण मां के गर्भ में होता है। इन्हीं पांचों तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों में सतत् परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से किशोर, जवान, फिर अधेड़ होते हुए वृद्ध हो जाता है। अंत में उसी शरीर का विश्लेषण अर्थात पंच महाभूतों का अपने-अपने तत्वों में विलीनीकरण हो जाता है। इसी प्रकार ऋतुओं में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहता है। बीज वृक्ष बनता है। वृक्ष में अनेक शाखाएं फूट जाती हैं। उसमें फूल आते हैं। फूल से फल निकलते हैं। अंत में उसी वृक्ष से फिर बीज बनता है। यही प्रकृति की निश्चित नियति है। सत्य सभी नैतिक मूल्यों का आधार है। विश्वास, ईमानदारी, दया, करुणा, परोपकार, प्रेम और अ¨हसा आदि गुण सत्य पर ही आश्रित है।