वाणी अभिव्यक्ति का शाश्वत श्रृंगार है
परिष्कृत शब्द संत की तरह निर्मल और निश्छल होता है। वही कभी मीरा, नानक, कबीर, रैदास की वाणी बनकर युग का नेतृत्व और मार्गदर्शन करता है ।
आचरण की सभ्यता और मौलिकता दीर्घजीविता का मूल है। आडंबर और कृत्रिमता की कोख से जन्मा शब्द, शब्द भ्रम तो हो सकता है, लेकिन शब्द ब्रrा नहीं। शब्द ब्रrा अकाट्य, अनश्वर और अविनाशी होता है। शब्द ब्रrा के चुने गए खुशबूदार शब्द-पुष्पों से वाणी का निर्माण होता है। वाणी अभिव्यक्ति का शाश्वत श्रृंगार है। व्यक्ति के क्षय हो जाने के बाद भी वाणी किसी न किसी न किसी रूप में ब्रrांड में कायम रहती है। शब्द भ्रम के कृत्रिम पुष्पों से अभिव्यक्ति का सांसारिक गंतव्य तो सिद्ध हो सकता है, लेकिन जीवन के असली गंतव्य और शब्द ब्रrा की शाश्वतता और स्थायित्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
जब शब्द और अभिव्यक्ति आचरण और तप साधना में पगकर उपजते हैं तो वे भाषाई मिसाइल का कार्य करते हैं। शब्दों का अपव्यय इनकी ऊर्जा और शक्ति-सामथ्र्य को भी कम कर सकता है, जबकि इनका संचय और सार्थक उपयोग नई जीवनीशक्ति उपहार में देता है। अविवेकपूर्ण शब्द प्रयोग दुविधा उत्पन्न कर खुद को ही तनाव, दबाव और चिंता में डाल देता है। इसके विपरीत शब्द का सार्थक और सोद्देश्य निवेश दूसरों के लिए भी कल्याणकारी सिद्ध होता है। शब्द ब्रrा की प्रामाणिकता प्राप्त कर देने वाला शब्द दूसरों के कष्ट, संताप, व्याधि और वेदनाओं का भी हरण कर सकता है। स्वयं और दूसरों के लिए वह सर्वथा हितैषी और कल्याणकारी सिद्ध होता है।
परिष्कृत शब्द संत की तरह निर्मल और निश्छल होता है। वही कभी मीरा, नानक, कबीर, रैदास की वाणी बनकर युग का नेतृत्व और मार्गदर्शन करता है और कभी गीता, भागवत और पुराणों की मंत्र-संहिता बनकर साधकों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला शक्तिपीठ बनता है। झूठ, कुचिंतन और कुसंगति-प्रेरित शब्द समाज में जहर, वितृष्णा और वैमनस्यता के अलावा कुछ भी प्रचारित-प्रसारित करने की सामथ्र्य नहीं रखते। शब्द और वाणी से खंडित, बाधित या संतप्त जीवन पल में कायाकल्पित हो जाता है। शब्द और आनंद की शाश्वतता के दीप जीवन में चारों ओर टिमटिमाने लगते हैं। प्रभु कृपा से ही शब्द ब्रrा की यह अमूल्य वटवृक्ष रूपी शब्द संपदा की छांव प्राप्त होती है।