संसार का सबसे बड़ा सत्य यही है
जिन लोगों के लिए मुक्ति जीवन का परम उद्देश्य नहीं है, उनके सामने न तो अध्यात्म का कोई मतलब है और न ही इस सवाल का कि पदानुक्रम व्यवस्था से वे कैसे बाहर निकल सकते हैं?
यह संसार पदानुक्रम व्यवस्था पर आधारित है। इसका अर्थ यह है कि यदि आप किसी बड़े पद पर हैं या आपको समाज में श्रेष्ठ व्यक्ति होने का सम्मान मिला हुआ है, तो ज्यादा इज्जत मिलेगी। मान-सम्मान मिलेगा। यदि आप छोटे पद पर हैं या बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं हैं, तो आपको मिलने वाला मान-सम्मान आपके पद या लोकप्रियता के अनुरूप होगा। संसार और अध्यात्म के बीच का विभाजक बिंदु पदानुक्रम व्यवस्था ही है। जब तक आप पदानुक्रम व्यवस्था के अंतर्गत हैं, तब तक आप संसार में हैं। जिस क्षण आप इस व्यवस्था का अतिक्रमण करके साम्यावस्था में प्रविष्ट होते हैं उसी क्षण आप अध्यात्म को मानने-आजमाने वाले लोगों में शामिल हो जाते हैं। संसार के सभी जीव पदानुक्रम व्यवस्था के अंतर्गत स्थित हैं। संसार का सबसे बड़ा सत्य यही है।
संसार में सबके सामने सबसे बड़ा सवाल यही रहता है कि पदानुक्रम व्यवस्था में वह इस समय किस पायदान पर है। यही प्रश्न सभी जीवों को गतिशील रखता है और यही प्रश्न हर किसी को सबसे अधिक व्यथित भी करता है। इस विषय पर बहस करना बेकार है कि यह व्यवस्था गलत है या सही। इसका विकल्प क्या है? जिन लोगों के लिए मुक्ति जीवन का परम उद्देश्य नहीं है, उनके सामने न तो अध्यात्म का कोई मतलब है और न ही इस सवाल का कि पदानुक्रम व्यवस्था से वे कैसे बाहर निकल सकते हैं?
मुक्ति हमेशा ऐसे विरले व्यक्तियों का जीवनोद्देश्य रहा है, जो पदानुक्रम व्यवस्था से बाहर निकल सकने का हौसला रखते हैं। हम इस यथार्थ को स्वीकार करके चलते हैं कि हमें फिलहाल इसी संसार में जीना है और पदानुक्रम व्यवस्था के अंदर रहते हुए काम करना है। क्योंकि जब तक स्वयं ब्रह्म- तुल्य कोई आत्मा इस संसार का प्रत्यक्ष नियंत्रण अपने हाथ में नहीं ले लेती, तब तक पदानुक्रम व्यवस्था इस संसार का सबसे बड़ा नियामक तत्व रहने वाली है। लेकिन जब कभी ऐसा हो सकेगा, तब यह संसार, संसार नहीं रहेगा, बल्कि अध्यात्म लोक बन जाएगा। इस व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है, ‘अपने से कमजोर पर नियंत्रण रखना, अपने से अधिक शक्तिशाली को खुश रखना और अपने समकक्ष को प्रतियोगिता में पीछे रखना।’ इस सूत्र को आजमाने में जो जितना सफल है, वह पदानुक्रम व्यवस्था में उतना ही वरिष्ठ है। महाभारत में कर्ण प्रतियोगिता में प्राप्त
प्रतिभा क्रम के मामले में अर्जुन एवं अपने समय के अन्य धनुर्धरों से कहीं आगे था, लेकिन वह पदानुक्रम में इसीलिए पिछड़ा रहा, क्योंकि उसे अपने समकालीन वरिष्ठ व्यक्तियों की अनुकूलता हासिल नहीं हो सकी। भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कृष्ण और यहां तक कि गुरु परशुराम भी उसके अनुकूल नहीं रहे, जबकि अर्जुन इन सभी के प्रिय पात्र थे। प्रतियोगिता के इस सारे प्रपंच के बीच कुछ बातों का ध्यान विशेष रूप से रखने की जरूरत है। आपको अपने स्वास्थ्य, समृद्धि और ज्ञान का सतत विकास करते रहना चाहिए। यही तीन ऐसे मूल साधन हैं, जिनके माध्यम से आप इस प्रतियोगिता में टिके रह सकते हैं। यदि इन तीनों साधनों के प्रबंधन में आप अकुशल हैं, तो फिर आप बहुत आगे नहीं जा सकेंगे। प्रतियोगिता और पदानुक्रम की इस होड़ में आप चाहे जितने सफल हो जाएं, उसका स्थायित्व अंतत: इस बात पर निर्भर करेगा कि आपका चरित्र कैसा है और दूसरे लोगों के मन में आपकी छवि कैसी है? बेशक प्रतियोगिता की होड़ में उतर कर व्यक्ति आगे बढ़ने का प्रयास करे, लेकिन वह
अपने चरित्र को भूले नहीं। चरित्र को गंवाकर पदानुक्रम के सोपान में कदापि आगे नहीं बढ़ा जा सकता। ऋषि-मुनि भी चारित्रिक पतन के बाद अधोगति को प्राप्त होते देखे गए हैं।
यदि आपको मिलने वाली हार-जीत, मान-सम्मान की कोई परवाह नहीं है, तो इसका मतलब है कि आप प्रतियोगिता और पदानुक्रम की व्यवस्था से ऊपर हैं और योग-अध्यात्म में आपका मन आसानी से रम सकता है।