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अहंकारवश मनुष्य अनैतिक कर्म करता है जिसका प्रतिफल उसे जन्म जन्मांतर तक भोगना पड़ता है

अहंकारवश मनुष्य पापकर्म या अनैतिक कर्म कर जाता है जिसका प्रतिफल उसे जन्म जन्मांतर तक भोगना पड़ता है। अहंकार एक राक्षसी प्रवृत्ति है और इस प्रवृत्ति के कारण अन्य दुर्गुण एकत्र होकर मनुष्य को पूर्ण राक्षस बना देते हैं। शास्त्रों में राक्षसों का वर्णन हर युग यानी सतयुग, त्रेता और

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 27 Nov 2015 09:43 AM (IST)Updated: Fri, 27 Nov 2015 09:45 AM (IST)
अहंकारवश मनुष्य अनैतिक कर्म करता है जिसका प्रतिफल उसे जन्म जन्मांतर तक भोगना पड़ता है
अहंकारवश मनुष्य अनैतिक कर्म करता है जिसका प्रतिफल उसे जन्म जन्मांतर तक भोगना पड़ता है

अहंकारवश मनुष्य पापकर्म या अनैतिक कर्म कर जाता है जिसका प्रतिफल उसे जन्म जन्मांतर तक भोगना पड़ता है। अहंकार एक राक्षसी प्रवृत्ति है और इस प्रवृत्ति के कारण अन्य दुर्गुण एकत्र होकर मनुष्य को पूर्ण राक्षस बना देते हैं। शास्त्रों में राक्षसों का वर्णन हर युग यानी सतयुग, त्रेता और द्वापर में हुआ है। यही नहीं, राक्षस कलयुग यानी वर्तमान युग में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इस युग में राक्षसी प्रवृत्तियों को पहचानने के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में कहा है कि राक्षस लोग इनका हित करने वालों के प्रति भी मौका मिलने पर प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि इनकी दृष्टि में लाभ है। राक्षसी प्रवृत्ति वाले लोगों को दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में कष्ट होता है। ये दूसरों के दोषों को हजार आंखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी में मक्खी के समान कूद जाते हैं। ये लोग दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपने प्राण तक गंवा देते हैं।
अहंकार के कारण ये ईश्वर के विधान पर विश्वास न करके स्वयं को स्वयंभू समझकर अपने निर्णयों को सवरेपरि मानकर दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं। राक्षस गण नैतिक को अनैतिक मानते हैं। राक्षसी प्रवृत्ति के कारण इनके आस-पास का माहौल बोङिाल और नकारात्मक हो जाता है। यही कारण है कि संकेतात्मक रूप में पृथ्वी ने भगवान से प्रार्थना रूप में कहा भी है कि मुङो पहाड़ों, वृक्षों और किसी भी वस्तु का इतना भार महसूस नहीं होता, जितना एक राक्षस का। ऊपर वर्णित दुर्गुण यदि किसी मनुष्य में है तो उसे इस युग का राक्षस ही समझना चाहिए और कर्मफल के सिद्धांत के अनुसार उसे आने वाले जन्मों में इस राक्षसी प्रवृति का प्रतिफल भोगना ही होगा। अक्सर राक्षसी प्रवृत्ति का व्यक्ति अपने दुगरुण मानने के लिए तैयार होता ही नहीं है। इसीलिए मनुष्य को स्वाध्याय के जरिये अपने अंदर झांकने का प्रयास करना चाहिए। स्वाध्याय बिल्कुल निष्पक्ष रूप में करना चाहिए, जिससे व्यक्तित्व का असली स्वरूप पता लग सके। यदि राक्षसी प्रवृत्ति के दुगरुण किसी व्यक्ति में हैं तो उन पर धीरे-धीरे विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।


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