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सर्वे भवन्तु सुखिन:

विश्वभावना का विचार भारतीय संस्कृति की उदात्त भावनाओं का ही एक अंग है। वसुधैव कुटुम्बकम् (समस्त वसुधा ही परिवार है) और सर्वे भवन्तु सुखिन: (सभी लोग सुखी हों) की कामना और भावना हमारे यहां सनातन काल से रही है। हम सभी का जीवन, हमारा स्वभाव और कार्य-व्यवहार सभी में सबके

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 01 Jul 2015 11:11 AM (IST)Updated: Wed, 01 Jul 2015 11:15 AM (IST)
सर्वे भवन्तु सुखिन:
सर्वे भवन्तु सुखिन:

विश्वभावना का विचार भारतीय संस्कृति की उदात्त भावनाओं का ही एक अंग है। वसुधैव कुटुम्बकम् (समस्त वसुधा ही परिवार है) और सर्वे भवन्तु सुखिन: (सभी लोग सुखी हों) की कामना और भावना हमारे यहां सनातन काल से रही है। हम सभी का जीवन, हमारा स्वभाव और कार्य-व्यवहार सभी में सबके लिए सुख, शांति, प्रेम और सद्भावना का होना मानवीय चरित्र का ही द्योतक है। तेरा-मेरा, अपना-पराया और इनकी-उनकी जैसी स्वार्थ की भावनाओं से हम ऊपर उठकर और सबके कल्याण और सुख-शांति की कामना करते हुए जीवन को आगे बढ़ाते जाएं।
इससे जहां अपना भी भला होता है, वहीं पर दूसरों का भी कल्याण होता जाता है। सभी धर्मग्रंथों और दर्शनों में विश्व कल्याण की बात बताई गई है। धर्म वही है, जिससे सबका भला होता है। अपनी भलाई में जो दूसरों की भलाई देखता है, वह ‘विश्वमानव’ हो जाता है। उसके लिए अपने-पराए और स्वार्थ की भावना किसी भी स्तर पर नहीं होती है। यही तो मनुष्य का कर्तव्य और कर्म होना चाहिए कि केवल अपने बारे में न सोचे, बल्कि सबके बारे में अच्छा सोचे और अच्छा करने का स्वभाव बनाए। जैसे ब्रrा में सारा विश्व एक नीड़ के समान एकाकार हो जाता है, वैसे ही हमारी मन की आंखों में सारा मानव समाज अपना सहोदर जैसा हो जाए, तो जीवन का सच्चा मकसद पूरा हो जाता है।
यह शुभता, विश्वभावना की धारा का आधार है। हम रोजाना ईश्वर से प्रार्थना करें कि हे ईश्वर हमारा स्वभाव, कर्म व्यवहार और बुद्धि कभी स्वार्थ से प्रेरित होकर एकांगी न हो। हमारे रोम-रोम में परोपकार की विश्वभावना हर पल बनी रहे। हमारी हर इंद्रिय उत्तम धारा में कार्य करने वाली हो। जैसे हम परिवार के सदस्यों के प्रति हमेशा कृतज्ञता और शुचिता का भाव बनाए रखते हैं, वैसा ही भाव हम विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति बनाएं रखें। इससे हृदय में हर पल पवित्रता का भाव बना रहेगा। किसी से न नफरत की भावना होगी और न किसी से असत्य भाषण ही करेंगे। करुणा, दया, प्रेम, सहिष्णुता और सदाशयता की भावना भी लगातार बढ़ती जाएगी। सारा जीवन सद्गुणों से भरा-पूरा हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा लगातार विस्तार होता जाएगा। ‘मैं’ की जगह ‘हम सब’ की भावना जाग्रत होती जाएगी। ऐसी भावना हम साधना के जरिए हासिल कर सकते हैं।


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