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गुरु की गुरुता

भारतीय संस्कृति में गुरु का पद सर्वोच्च माना गया है। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के तुल्य कहा गया है। प्रथम स्तर पर गुरु बालक को शिक्षा देकर इस योग्य बनाता है कि वह अपने कर्मक्षेत्र में सफल हो सके। द्वितीय स्तर पर गुरु अपने शिष्य के अंतर्मन में व्याप्त अंधकार (अज्ञान व अविद्या) और विकारों को नष्ट कर प्रकाश (ज्ञान) की अनु

By Edited By: Published: Wed, 03 Sep 2014 10:54 AM (IST)Updated: Wed, 03 Sep 2014 11:55 AM (IST)
गुरु की गुरुता
गुरु की गुरुता

भारतीय संस्कृति में गुरु का पद सर्वोच्च माना गया है। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के तुल्य कहा गया है। प्रथम स्तर पर गुरु बालक को शिक्षा देकर इस योग्य बनाता है कि वह अपने कर्मक्षेत्र में सफल हो सके। द्वितीय स्तर पर गुरु अपने शिष्य के अंतर्मन में व्याप्त अंधकार (अज्ञान व अविद्या) और विकारों को नष्ट कर प्रकाश (ज्ञान) की अनुभूति कराता है।
गुरु शिष्य को ज्ञान का मार्ग दिखाने के साथ-साथ उसकी चेतना का विस्तार भी करता है। गुरु वह सेतु है जिस पर चलकर शिष्य परमात्मा तक पहुंचता है, तभी तो कबीर कहते हैं कि गुरु जी आप धन्य हैं कि आपने भगवान के बारे बता दिया। इसी तरह सूफी महाकवि जायसी भी मानते हैं कि इस संसार में गुरु के बगैर कोई भी उस परब्रह्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है। 'बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।' गोस्वामी तुलसीदास भी 'हनुमान चालीसा' में हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि गुरुदेव की तरह मुझ पर कृपा करो- 'जै जै हनुमान गोसाईं, कृपा करौ गुरुदेव की नाई।' विचारणीय प्रश्न यह है कि सच्चा गुरु मिले कैसे? क्योंकि आज के इस परिवेश में सच्चा गुरु मिलना सहज नहीं है। यदि गुरु ही अज्ञानी है, तो वह शिष्य को कैसे मार्ग दिखा सकेगा? वह तो स्वयं को भी और शिष्य को भी पतन के गर्त में ढकेल देगा। संत कबीर ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन अपने तरीके से किया है। गुरु सच्चा ज्ञानी हो और शिष्य में ज्ञान पाने की ललक हो, तभी गुरु और शिष्य दोनों धन्य हो उठते हैं। इस संबंध में ओशो कहते हैं- 'गुरु-शिष्य संबंध संयोग मात्र भी है और एक होशपूर्ण चयन भी। जहां तक गुरु का सवाल है, वह पूर्णत: होशपूर्ण (जागरूकतापूर्ण) चयन है। जहां तक शिष्य का प्रश्न है, यह संयोग ही हो सकता है, क्योंकि अभी होश उसके पास है ही नहीं। ओशो के कहने का अर्थ यह है कि यदि सच्चा गुरु आसानी से नहीं मिलता है तो गुरु को ऐसा शिष्य भी मुश्किल से मिलता है, जो उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान की लौ को प्रज्जवलित कर सके। गुरु ऐसे शिष्य को मात्र एक बीज देता है और शिष्य भूमि बनकर उस बीज को अंकुरित और पल्लवित करता है। इस प्रकार सच्चा गुरु शिष्य को सही मार्ग निर्देशित करके न केवल उसके जीवन-मार्ग को प्रशस्त करता है बल्कि उसे आध्यात्मिक ऊंचाइयों की ओर ले जाने में सहायक होता है।
[डॉ. सरोजनी पांडेय]




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