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दैहिक संपन्नता व्यष्टिपरक होती है, जबकि आध्यात्मिक संपन्नता समष्टिपरक

मद्यपान के नशे का ग्राफ समय के साथ-साथ नीचे की ओर उतरता दिखाई देता है। वहीं पद व धन के मद का नशा ऊध्र्वमुखी होकर समय के समानांतर मर्यादाओं की दहलीज छोडऩे को विवश करता है। जो शख्स घोर विपत्तियों में भी आदर्श, गुण, आस्था, विश्वास व संकल्प के स्थायी

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 31 Jan 2015 09:10 AM (IST)Updated: Sat, 31 Jan 2015 09:21 AM (IST)
दैहिक संपन्नता व्यष्टिपरक होती है, जबकि आध्यात्मिक संपन्नता समष्टिपरक
दैहिक संपन्नता व्यष्टिपरक होती है, जबकि आध्यात्मिक संपन्नता समष्टिपरक

मद्यपान के नशे का ग्राफ समय के साथ-साथ नीचे की ओर उतरता दिखाई देता है। वहीं पद व धन के मद का नशा ऊध्र्वमुखी होकर समय के समानांतर मर्यादाओं की दहलीज छोडऩे को विवश करता है।

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जो शख्स घोर विपत्तियों में भी आदर्श, गुण, आस्था, विश्वास व संकल्प के स्थायी मूल्यों का सान्निध्य नहीं छोड़ता, वह महान है। इसी तरह जो शख्स समृद्धि के दिनों में झूठ, फरेब, रिश्वत, लोभ आदि र्दुगणों को चरित्र में पनपने का अवसर नहीं देता, सचमुच वह तपी व्यक्तित्व इस धरा पर साक्षात देवदूत ही होता है। बिकना जितना सरल है, आदर्शों के कंटकाकीर्ण मार्गों पर टिकना उतना ही कठिन।

सदाचार व सार्थकता की चढ़ाई जितनी दुर्गम है, अनाचार व अवमूल्यन की उतराई उतनी ही सहज। जीवन की नाट्यशाला में जीव में शब्द की प्राण-प्रतिष्ठा कर ईश्वर ने देह के इस घोड़े को महत्वपूर्ण भूमिकाएं सौंपी हैं। शब्द ब्रह्म के उर्वर बीजों से देह को उपेक्षित कर हम ज्ञान की खेती लहराकर मन-मन मैं शाश्वत शांति, सुख, मूल्य, सहिष्णुता, उदारता, निष्ठा, आनंद, हर्ष व उत्कर्ष की चिरंतन खेती लहराएं। या फिर शब्द ब्रह्म की उपेक्षा कर देह के घोड़े को बलिष्ठ व गरिष्ठ बनाकर स्थापित मूल्यों,मर्यादाओं, स्थापनाओं के दैदीप्यमान तोरणद्वारों का विध्वंश करें।

अनाचार, दुश्मनी, दंभ, विध्वंश, विघटन, उपेक्षा, क्षोभ, पश्चाताप, पीड़ा, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का पोषण करें। दैहिक संपन्नता से बौद्धिक विपन्नता का प्रसार होता है, जबकि दैहिक उपेक्षा से शाश्वत चेतना का स्थायी प्रसार। दैहिक संपन्नता व्यष्टिपरक होती है, जबकि आध्यात्मिक संपन्नता समष्टिपरक। व्यक्ति की शक्ति व क्षमताएं शीघ्रनाशी होती हैं, प्रकृति की सत्ताएं शाश्वत, अविनाशी व समग्र को आत्मिक व वास्तविक सुख के लोक में ले जाकर आमूल-चूल परिवर्तन करने में सक्षम होती हैं। पद व मद का भंडाफोड़ अस्तित्व के आत्मबोध के चौराहे पर होता है, जब शक्ति, सामथ्र्य व इंद्रियां बगावत कर उसे लावारिश छोड़कर अकेले तड़पने को बाध्य कर देती हैं। समय का जादूगर निर्धारित अवधि के बाद दृश्यपट का पर्दा खिसका देने की सीटी बजा देता है।

सांसारिक के लेनदार व देनदार बिना किसी निर्णय पर पहुंचे, एक पर्दे के भीतर निश्चेष्ट होकर तड़पने के लिए बाध्य होते हैं।


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