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स्व मूल्यांकन करे

आत्मश्लाघा या आत्मप्रशंसा के इस युग में अपनी निंदा सुनना किसे प्रिय है? निंदा करने वाले को शत्रु और प्रशंसा करने वाले को मित्र मान लिया जाता है। जो प्रशंसा योग्य है, उसे औरों से प्रशंसा की आशा होती है ताकि वह स्वयं पर गर्व कर सके। जो इस योग्य

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 24 Nov 2014 10:58 AM (IST)Updated: Mon, 24 Nov 2014 11:01 AM (IST)
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आत्मश्लाघा या आत्मप्रशंसा के इस युग में अपनी निंदा सुनना किसे प्रिय है? निंदा करने वाले को शत्रु और प्रशंसा करने वाले को मित्र मान लिया जाता है। जो प्रशंसा योग्य है, उसे औरों से प्रशंसा की आशा होती है ताकि वह स्वयं पर गर्व कर सके। जो इस योग्य नहीं है वह अपनी प्रशंसा के लिए अनेक उपाय करता है और प्रशंसा को प्रायोजित करता है ताकि वह किसी से पीछे न रह सके।

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ज्ञानी हो या अज्ञानी, किसी को भी निंदा और आलोचना सहन नहीं होती। निंदक को हतोत्साहित करने, दबाने और उसे दंडित करने के प्रयास होते हैं। निंदा का उत्तर देने के बजाय उसका उपहास उड़ाकर अथवा नकार कर स्वयं की उच्चता सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। कबीरदास ने क्यों कहा था कि निंदा उन्हें प्रिय है और अपने निंदकों को वे अपने निकट रखना चाहते थे। आज सकारात्मक दृष्टिकोण की बात की जाती है, किंतु सकारात्मकता को स्वप्नजीवी शैली अधिक बना दिया गया है। सकारात्मक होना मात्र उन विचारों को साथ रखना नहीं है, जो निजी महत्वाकांक्षाओं को ऊर्जावान बनाए। ऐसे तो मनुष्य एक दिशा में चलता चला जाएगा और उसे आभास ही नहीं हो सकेगा कि उसकी दिशा और दशा क्या है। सकारात्मकता कबीरदास के विचार के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। कबीरदास के अनुसार निंदा से आत्म-परीक्षण की प्रेरणा मिलती है। निंदा तभी होती है, जब कोई गलती होती है। हो सकता है कि गलती और निंदा समानुपातिक न हो।

निंदक का उद्देश्य सुधार करना नहीं वरन अपयश करना ज्यादा होता है, उसका कार्य किसी की बुराई करके अपने मन की ईष्र्या, कुंठा और प्रतिशोध की भावना को शांत करना है। निंदा के संदर्भ में सकारात्मक सोच अपने लिए अच्छाई तलाशना है। कबीरदास ने तो निंदक का आभार व्यक्त किया कि उसने निंदा करके उनके अवगुणों को धोने का कार्य किया है। निंदा अवगुणों और त्रुटियों की ओर इंगित करके उन्हें दूर करने के लिए प्रेरणा देती है। अनसुना करने के स्थान पर अपनी निंदा को पूरे ध्यान से सुनकर उस पर विचार करना चाहिए। उस निंदा में यदि कोई सार हो, तो उसे ग्रहण करके अपने में सुधार लाना उचित है। यदि निंदा सारहीन हो तो उससे चिंतित और व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है। निंदा सारहीन भी हो, तो भी वह एक अवसर तो देती ही है अपने को देखने का और स्व मूल्यांकन करने का।


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