धर्म की नींव विश्वास पर टिकी होती है, तर्क पर नहीं
धर्म की नींव विश्वास पर टिकी होती है, तर्क पर नहीं। धर्म संबंधी बातों में तर्क नहीं करना चाहिए। यह तो बड़े-बड़े बुद्धिमानों के बुद्धितत्व का निचोड़ है। धर्म मानव-जीवन की वह आचार-संहिता है, जो हमें कर्तव्य-पालन की शिक्षा देता है या व्यष्टि जीवन को समष्टि में विलीन करने का आदेश देता है। धर्म वैसा ही है, जैसा आकाश। जैसे घटाकाश, मठाकाश कह
धर्म की नींव विश्वास पर टिकी होती है, तर्क पर नहीं। धर्म संबंधी बातों में तर्क नहीं करना चाहिए। यह तो बड़े-बड़े बुद्धिमानों के बुद्धितत्व का निचोड़ है। धर्म मानव-जीवन की वह आचार-संहिता है, जो हमें कर्तव्य-पालन की शिक्षा देता है या व्यष्टि जीवन को समष्टि में विलीन करने का आदेश देता है।
धर्म वैसा ही है, जैसा आकाश। जैसे घटाकाश, मठाकाश कहने से आकाश अनेक नहीं होता, वैसे ही विभिन्न नाम होने से धर्म अनेक नहीं हो सकते। धर्म वह है, जिसे सभी समाज, सभी मतावलंबी सवरेकृष्ट स्वीकार करते हैं। धर्म को सभी मत-मतांतर सुख की प्राप्ति का साधन मानते हैं। धर्म के लिए सभी संप्रदाय वाले उपदेश देते हैं कि विश्व की सर्वोत्कृष्ट वस्तु को छोड़कर धर्म धारण करो। सभी ज्ञानी, महात्मा, संत, चाहे वे किन्हीं धर्म-ग्रंथों को स्वीकार करने वाले हों, यही शिक्षा देते हैं कि धर्म से सुंदर कोई वस्तु संसार में नहीं है।
कुछ लोगों का मत है कि धर्म धारण कर लेने से मनुष्य देवता बन जाता है। गीता, वेद व उपनिषद अनंत काल से हमें धर्मोपदेश देते आ रहे हैं। धर्म का सिद्धांत है-अपने को पूर्ण स्वाधीन रखना। अनैतिक कार्य न करना। किसी जीव को दुख न देना, हिंसा न करना, प्राणी मात्र को अपने समान समझना, क्रोध न करना, सहनशील बनना, पर नारी को न ताकना, संकट आ जाने पर धीरज धारण किए रहना, द्वेष न रखना, अभिमान न रखना आदि-आदि।
ये सभी धर्म के सिद्धांत हैं, जो समाज को पुष्ट रखने वाले और पोषण करने वाले हैं, जैसे वृक्ष की जड़ में पानी डालने से वह हरा-भरा रहता है। जिस समय मनुष्य में यह गुण पूरी तरह विद्यमान थे, वह सतयुग था। जब मानव स्वभाव और व्यवहार में अंतर आया, सिद्धांतों में ह्रास हुआ तो वह त्रेता और द्वापर नाम से पुकारा गया। वर्तमान में उत्तम गुण मनुष्य में बहुत कम हैं। इसे हम कलयुग कहते हैं। जीवन में जो कुछ भी सार है, वही धर्म है। धर्म मात्र आत्मा-परमात्मा का संबंध स्थापित करने वाला ही नहीं है, बल्कि हमारे सभी कर्म, व्यवहार, करुणा, क्रोध, स्नेह, दया, त्याग, तप, आदि का बोधक है और इसी के सहारे सभी मानव व्यापार-व्यवहार होते हैं। समस्त मानव वृत्तियां अपना कार्य करती हैं। मात्र यही एक ऐसा मार्ग है, जहां समरसता आ जाती है। सभी एक सूत्र में बंध जाते हैं।
धर्म का सबसे बड़ा साधन आत्म-मर्यादा है। आत्म मर्यादा का सोपान आत्म गौरव है और आत्म गौरव का आधार सदाचार है।