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सामान्य व्यक्ति का अतीत प्राय: ऐसा ही होता है

आज के मानव ने जीवन रूपी बहाव को सामाजिकता, रीति-रिवाज और परंपराओं के अनेक बंधनों में बांध रखा है। जाति, संप्रदाय की अनेक गांठें बनी हुई हैं। इन गांठों के फलस्वरूप अस्वाभाविकता का विकास हो चुका है। मन में अनेक नवीन संस्कार जुड़ चुके हैं। मनुष्य जीवन र्प्यत इतने उतार-चढ़ाव

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 01 Dec 2015 09:16 AM (IST)Updated: Tue, 01 Dec 2015 09:18 AM (IST)
सामान्य व्यक्ति का अतीत प्राय: ऐसा ही होता है
सामान्य व्यक्ति का अतीत प्राय: ऐसा ही होता है

आज के मानव ने जीवन रूपी बहाव को सामाजिकता, रीति-रिवाज और परंपराओं के अनेक बंधनों में बांध रखा है। जाति, संप्रदाय की अनेक गांठें बनी हुई हैं। इन गांठों के फलस्वरूप अस्वाभाविकता का विकास हो चुका है। मन में अनेक नवीन संस्कार जुड़ चुके हैं। मनुष्य जीवन र्प्यत इतने उतार-चढ़ाव देखता है कि उनका प्रभाव उसके मन और तन दोनों पर पड़ता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति इन सभी अस्वाभाविकताओं और कुंठाओं को सबसे पहले समाप्त करे। इसलिए सबसे पहले व्यक्ति को मन के संचार को, रक्त के संचार को शरीर के तापमान के साथ-साथ विचारों के प्रवाह को रास्ता देना होगा। इन सबको एक रस में लाने का प्रयास करें। अगर ऐसा नहीं होगा तो यह निश्चित है कि साधना में मन नहीं लगेगा।
तन और मन दोनों स्वाभाविक रूप में न आकर प्रतिकूल ले जाने का प्रयास करेंगे। अक्सर ऐसा होता है कि साधना में सफलता नहीं मिल पाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि व्यक्ति परिश्रम तो करता है, लेकिन तन और मन उसे अपनी गुलामी से मुक्त नहीं करते हैं। सामान्य व्यक्ति का अतीत प्राय: ऐसा ही होता है। कुछ खट्टा, तो कुछ मीठा। दोनों तरह की अनुभूतियां जब जाग जाती हैं तो वह मनुष्य को मनुष्य से काफी दूर कर देती हैं। यह विशेष रूप साधना में ज्यादा होता है। इसलिए जब भी आप साधना पथ के पथिक बनें तो अपने तन और मन को ज्यादा खुला रखें, क्योंकि जो कुछ भी आपने अभी तक स्पर्श किया है, देखा है, स्वाद लिया है और अनुभव किया है वे सब की सब अनुभूतियां इनके साथ हैं। तन का ख्याल और मन का ख्याल रखकर साधना में उतरने का मकसद है कि पहले आप शारीरिक और मानसिक क्रियाओं से जरूर गुजरें। वस्तुत: आप या हम जिस संसार में रह रहे हैं, हमें इसके व्यावहारिक जगत का अनुभव है, यही आपका कर्मक्षेत्र है और इसमें रहते हुए आप अंतर्यात्र करना चाहते हैं। अंतर्यात्र हम आध्यात्मिक जगत में कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक जगत और आध्यात्मिक जगत, दोनों का तारतम्य नितांत आवश्यक है। आपको इन दोनों जगत में तारतम्य स्थापित करने के लिए अपने शरीर और संसार को महत्वपूर्ण स्थान देना होगा। ध्यान रहे कि यह संसार रूपी घर जो आपको मिला है, यह आपका नहीं है। यहां रहकर आपको उस परम सत्ता को जानना होगा। जिसे शरीर के स्वस्थ रहते ही जाना और समझा जा सकता है।


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