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हमारा जीवन परमात्मा का मंदिर है

हमारा जीवन परमात्मा का मंदिर है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो हमारे शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है। मतलब यह है कि जब ब्रह्मांड परमात्मा की अभिव्यक्ति है, तो हमारा शरीर भी परमात्मा का अंश है। परमात्मा का अर्थ है-परम आत्मा, जो पूर्ण पवित्र हो और जिसमें कोई विकार न हो। ईश्वर का अंश होने के कारण प्रत्येक जीव पवित्र है, निर्विक

By Edited By: Published: Sat, 28 Jun 2014 01:04 PM (IST)Updated: Sat, 28 Jun 2014 01:09 PM (IST)
हमारा जीवन परमात्मा का मंदिर है
हमारा जीवन परमात्मा का मंदिर है

हमारा जीवन परमात्मा का मंदिर है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो हमारे शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है। मतलब यह है कि जब ब्रह्मांड परमात्मा की अभिव्यक्ति है, तो हमारा शरीर भी परमात्मा का अंश है। परमात्मा का अर्थ है-परम आत्मा, जो पूर्ण पवित्र हो और जिसमें कोई विकार न हो।
ईश्वर का अंश होने के कारण प्रत्येक जीव पवित्र है, निर्विकार और स्वस्थ है। स्वस्थ्य का अर्थ है- जो स्वयं में स्थित हो, जो अपने स्वभाव में हो। हमारा स्वभाव है स्वस्थ रहना, बीमार और दुखी रहना हमारा स्वभाव नहीं है। मनुष्य जब स्वयं बुरी आदतों का शिकार बन जाता है, तो वह विकारग्रस्त हो जाता है। बचपन से किसी भी व्यक्ति को बुरी आदत नहीं होती, लेकिन बाद में वह संसार से बुराई को खरीदकर ले आता है और बुरा आदमी बन जाता है।
जैसे बचपन से कोई नशा नहीं करता, लेकिन बड़ा होते ही वह बाजार से मादक पदार्थ खरीदकर लाता है और उस बुराई में फंसकर जीवन भर पछताने लगता है।
वस्तुत: जो व्यक्ति अपने नाखूनों से अपने शरीर में स्वयं घाव लगा ले, तो उसके लिए जिम्मेवार वह स्वयं होता है। कोई भी बुराई स्वयं आपके पास नहीं आती, आप स्वयं दौड़ते हुए बुराई के पास जाते हैं। एक बार अगर बुराई की चपेट में आप आ गए, तो वह ऐसी जोंक है जो जीवन भर आपका रक्त चूसती रहती है। आज भी बहुत लोग कहते हैं कि मैं सिगरेट आदि अमुक लतों को छोड़ना चाहता हूं, लेकिन छूटती नहीं। सच बात यह है कि ऐसी आदतें बड़ी मुश्किल से छूटतीं हैं। आज तक लाखों लोग इन बुरी आदतों के जाल में फंसकर अपनी जवानी, धन, मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा सब कुछ गंवा चुके हैं। विकार छह प्रकार के होते हैं- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या। इसी को षड्विकार कहते हैं। जो व्यक्ति इन बुराइयों के चंगुल में एक बार फंस जाता है, वह लाख कोशिश करके भी उसके लौहपाश से नहीं निकल पाता, लेकिन जो लोग विवेकशील होते हैं, वे इनके निकट नहीं जाते।
सच पूछा जाए तो मूलरूप से हमारा शरीर बहुत ही पवित्र है, लेकिन जब हम स्वयं बुरी आदतों से शरीर की पवित्रता नष्ट कर देते हैं, तो शरीर गंदा हो जाता है।


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