दुखीजनों का दुख दूर करने की अभिलाषा को दया कहते हैं
भगवान् की भव्य-भक्ति का आश्रय लेकर उनकी दया प्राप्त करने से ही मनुष्य-जन्म सार्थक होगा। हम सभी को दया के श्रेष्ठ गुण को अपने अंदर जगाना चाहिए।
गौतम ऋषि ने मनुष्य के लिए आवश्यक संस्कारों का निर्देश देते हुए आठ आत्मगुणों पर बल दिया है। उन्होंने दया को प्रथम स्थान प्रदान किया है। दया का भाव क्या है? दुखीजनों का दुख दूर करने की अभिलाषा को दया कहते हैं। दया के बगैर इस संसार का संचालन संभव ही नहीं है।
बालक का जन्म होते ही माता सर्वप्रथम उस पर दया करती है। माता की सदैव इच्छा रहती है कि मेरा बच्चा कभी भूखा न रहे, बीमार न पड़े, मुस्कुराता व साफ-स्वच्छ रहे। इसी दया से प्रेरित होकर वह स्वयं अनेक कष्ट सहकर बच्चे का लालन-पोषण करती है। गुरु यदि दया कर दे तो सामान्य शिष्य भी शास्त्र-पारंगत हो सकता है। दयावान के शासन में समस्त प्रजा अपने को सुखी स्वीकार करती है। हममें दया है, लेकिन वह सीमित है। मनुष्य ज्ञानवान अवश्य है, परंतु सर्वज्ञ नहीं। अज्ञानवश मनुष्य किसी से राग और किसी से द्वेष करता है। इसीलिए संसारी मनुष्य की दया की सीमा होती है। ज्ञान के संदर्भ में शास्त्र का मत है कि मनुष्य का ज्ञान सीमित होने से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है।
आकाश सीमा में बंधा हुआ नहीं है। कहीं भी हम आकाश के अभाव का अनुभव नही कर सकते। जहां पर परिपूर्ण ज्ञान सिद्ध हो, वहीं ईश्वर है-ऐसा स्वीकार करना चाहिए। हमारी सीमित दया का भी कोई प्रतियोगी अवश्य है, जो अव्यक्त, नित्य और सर्वज्ञ है। वही समान रूप से संपूर्ण जीवों का हित करता है। लौकिक माता-पिता तो अपने परिवार पर ही दया करते हैं, परंतु प्रभु तो सर्वत्र दया करते हैं। प्रभु सारे संसार के पिता हैं। वे भक्तों के अंत:करण में बैठकर अपने ज्ञानदीप से हमें प्रकाश दे रहे हैं। हम कष्ट आने पर दूसरों से दया चाहते हैं। किसी विद्वान ने कहा है ‘भगवान् शिव! हम जैसे याचकों की कामनाएं पूर्ण करने वाले, आपके रहते हुए यदि हम याचक-मुद्रा प्रदर्शित करते हुए दूसरे का अनुसरण करते हैं तो हमारी वैसी ही स्थिति होगी, जैसी दूध दुहने की इच्छा से कामधेनु के रहते हुए दुलत्ती मारने वाली ऊंटनी का अनुसरण करने से होती है।’ प्रभु भक्ति मात्र से संतुष्ट होकर कष्टों का निवारण करते हैं। भगवान् की भव्य-भक्ति का आश्रय लेकर उनकी दया प्राप्त करने से ही मनुष्य-जन्म सार्थक होगा। हम सभी को दया के श्रेष्ठ गुण को अपने अंदर जगाना चाहिए।