मानव मननशील प्राणी है इसलिए वह सृष्टि के प्रारंभ से ही सोचता आ रहा है
मनुष्य स्वभाववश इन द्वंद्वों को दूर कर प्रसाद, माधुर्य और सुख चाहता है वह सांसारिक दुखों से दूर होकर उन्हें सदा के लिए समाप्त करने की चेष्टा करता है।
मानव मननशील प्राणी है इसलिए वह सृष्टि के प्रारंभ से ही सोचता आ रहा है। उसकी वैचारिक प्रणाली उतनी ही पुरानी है, जितनी सृष्टि। यह संसार जिन परब्रह्म की रचना है, उन परमात्मा ने सृष्टि के निर्माण के साथ ही संसार में संविधान के रूप में वेदों को प्रकट किया। हमारे तत्वदृष्टा ऋषियों-आचार्यों ने उन अलौकिक विचारों को अपनी प्रज्ञा से प्रकट किया। मनीषियों की चेष्टाओं, भावनाओं, प्रेरणाओं, अनुभूतियों आदि का प्रस्थान ही हमारी परंपरा की सुदीर्घ श्र्ाृंखला है। सुख-दुख, अनुकूलता-प्रतिकूलता, प्रसाद-विषाद आदि ही जीवन है।
मनुष्य स्वभाववश इन द्वंद्वों को दूर कर प्रसाद, माधुर्य और सुख चाहता है इसलिए वह सांसारिक दुखों से दूर होकर उन्हें सदा के लिए समाप्त करने की चेष्टा करता है। शास्त्रीय परंपराएं दुख से बचने के ही विभिन्न् उपाय बताती हैं। ये दर्शन वेदों को केंद्र में रखकर उनके इर्द-गिर्द ही अपने सिद्धांतों को उपस्थापित करते हैं।
यही कारण है कि भारतीय परंपरा में दर्शन के दो भेद बने, जो वेदों को मानने और न मानने से स्थापित हुए हैं। ये हैं आस्तिक और नास्तिक। कौन आस्तिक हैं और कौन से दर्शन नास्तिक, इसमें मनुस्मृति का वह वचन ही प्रमाण है जिसमें वेदनिंदकों को नास्तिक कहा गया है। यानी वेदों को परमप्रमाण के रूप में मानने वाले आस्तिक और उन्हें सिरे से नकारने वाले नास्तिक हैं।
नास्तिक दर्शन प्राय: तीन हैं। चार्वाक, जैन और बौद्ध। आस्तिक दर्शन छह हैं - सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा और वेदांत। दर्शन की परंपराओं में भले परस्पर भेद हो, पर ये सारे जिन प्रमुख तत्वों पर चर्चा करते हैं वे आत्मा, परमात्मा और जगत हैं। कुछ इनके अस्तित्व को मानते हैं तो कुछ नहीं। कुल मिलाकर ये सभी दर्शन हमारी अमूल्य निधि है, जिससे हमारे दार्शनिक चिंतन का क्रमिक विकास हुआ।