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ऐसे भी महापुरुष जन्मे हैं जिन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्तिकर उनके प्रकट दर्शन किए हैं

बाह्य दृश्यमय जगत की रचना ईश्वर द्वारा की गई है। इस पृथ्वी पर मनुष्य सहित अनेक जीव-जंतु अपना जीवनयापन करते हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 15 Feb 2017 10:00 AM (IST)Updated: Wed, 15 Feb 2017 10:10 AM (IST)
ऐसे भी महापुरुष जन्मे हैं जिन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्तिकर उनके प्रकट दर्शन किए हैं
ऐसे भी महापुरुष जन्मे हैं जिन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्तिकर उनके प्रकट दर्शन किए हैं

बाह्य दृश्यमय जगत की रचना ईश्वर द्वारा की गई है। इस पृथ्वी पर मनुष्य सहित अनेक जीव-जंतु अपना

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जीवनयापन करते हैं। अन्यान्य जीवों में मनुष्य विवेक युक्त होने के कारण सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। उसे ईश्वर ने बुद्धि के द्वारा विचार करने की शक्ति प्रदान की है। विचारों को पवित्र कर आत्मभाव में जाग्रत होने की युक्ति मात्र मनुष्य के पास है। इस भूमि पर अनेकानेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने को पवित्र कर आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त किया है। अनेक ऐसे भी महापुरुष जन्मे हैं जिन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्तिकर उनके प्रकट दर्शन किए हैं।

सूक्ष्मावलोकन करने से ऐसा विदित होता है कि पूर्व में मनुष्य के हृदय में अत्यंत पवित्र विचारों में निर्मलता व्याप्त रहती थी। पवित्रता, शुद्धता और मन की सरलता उनके लिए अत्याधिक महत्व रखती थी। परंपरा से स्थापित मर्यादाओं का पालन उनके द्वारा उत्कृष्ट भाव से किया जाता था। लोग बाह्य दृष्टि से वैभवशाली नहीं थे, पर हृदय से बहुत संपन्न हुआ करते थे। सादा जीवन उच्च विचार उनका मूलमंत्र होता था। काल की गति के अनुसार विचारों का अवमूल्यन शुरू हुआ तो अंतर्मन के भाव जगत में शुष्कता आने लगी। लोग विचारों की उच्चता को छोड़कर मात्र भौतिक जगत की संपन्नता को श्रेष्ठ मानकर उसकी ओर आकर्षित होते चले गए। बाह्य चमक-दमक में भावों की शुद्धता कुम्हलाने लगी। स्वयं को भौतिक रूप से संवारने की होड़ समाज में लग गई, संस्कार क्षीण होने लगे और विचारों में गिरावट आने लगी। लोग बिना सोचे-समझे इस दौड़ में शमिल होते चले गए।

प्रेम, सहिष्णुता और दया परोपकार के स्थान पर बाह्य जगत की संपन्नता हावी होती चली गई। घर, नगर और गांव इससे ग्रसित होते गए। इसके कारण लोगों ने अपने अंतर्मन में झांकना बंद कर दिया। इसका परिणाम सामने आने लगा है। सभी ओर छीना-झपटी मची है। लोग अवसादग्रस्त होते जा रहे हैं। अब तो जीवन की अमूल्यता को ही नहीं समक्ष पा रहे हैं और अपनी जीवन लीला को समाप्त करने में लग गए हैं। जीवन जीने के लिए भौतिक साधनों की आवश्यकता है, पर भाव की शुद्धता से मन को सींचते रहने की भी आवश्यकता होती है। जीवन की निरंतरता के लिए इनकी आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इन्हें इनका स्थान

प्रदान कर अंतर्मन के भावों में पवित्रता लाते हुए पूर्णता की ओर अग्रसर होते जाना ही श्रेयस्कर होगा।


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