बारहमासा: क्यों पति की प्रतीक्षा में रत विरहन नवयौवना उसके आगमन के लिए गीत गाती
किसी भी देश की संस्कृति की जड़ें लोकसंस्कृति में समाहित होती हैं। लोकसंस्कृति को जीवित रखने से ही संस्कृति का वृक्ष हराभरा रह सकता है। हिमाचल की सांस्कृतिक विरासत भी कई रूपों में लोकमानस में विद्यमान हैं यथा लोकगीत, लोकनृत्य, लोकथाएं तीज और त्योहार, उत्सव पर्व आदि। 12003ये सभी विधाएं
किसी भी देश की संस्कृति की जड़ें लोकसंस्कृति में समाहित होती हैं। लोकसंस्कृति को जीवित रखने से ही संस्कृति का वृक्ष हराभरा रह सकता है। हिमाचल की सांस्कृतिक विरासत भी कई रूपों में लोकमानस में विद्यमान हैं यथा लोकगीत, लोकनृत्य, लोकथाएं तीज और त्योहार, उत्सव पर्व आदि। 12003ये सभी विधाएं मनोरंजन का एक विशिष्ट माध्यम रहे हैं। लोकगीत हमारे ग्रामीण अंचल में पनपती विरह अथवा सानिध्य, श्रंगार या उदासी, सुख अथवा दुख की गहनतम अभिव्यक्ति के क्षणों में जनमानस की इस अभिव्यक्ति को हम लोकगीत की परिभाषा दे सकते हैं। लोकगीत भी पारंपरिक संगीत के अनुरूप ही प्रत्येक स्थान की प्रकृति , जलवायु रहन-सहन, रीति- रिवाज खानपान एवं आस्थाओं में रचा-बसा होता है।
अत: प्रत्येक परिवेश में खेलते हंसते लोकगीत ग्रामीण जनजीवन के आत्मा और प्राण होते हैं। इन लोकगीतों की अतिविशिष्टता के लिए बारामासा का भी विशेष स्थान हैं, जिसके स्वरों में यहां के लोकजीवन के पटल पर ऋतुएं सदैव नए रंगों को अंकित करती हैं। हमारे लोकगीतों में शिशुजन्म से लेकर मनुष्य की अंत्येष्टि तक के समस्त परिदृश्य हमारे लोकगीतों में समाहित हैं।
पारंपरिक बारामासा में परदेस गए पति की दीर्घ प्रतीक्षा में रत विरहन नवयौवना प्रतिमास उसके आगमन के लिए पलकें बिछाएं उसकी राह देखती हुई जिस गीत को गुनगुनाती है वही कालान्तर में बारामासा या बारामाही के रूप में सृजित हुआ है। इन गीतों में मनोहारी भाव से प्रति मास परिवर्तित ऋतुओं का भावपूर्ण वर्णन रहता है अत: इसे ऋतु गीत संज्ञा भी दी जाती है। हिमाचल में हर ऋतु हर माह एक नया स्वर ताल-लय रंग और मादकता लेकर आता है। और ऐसे में प्रियतम का परदेस गमन। इसी विरह ने बारामासा गीतों को जन्म दिया। पारंपरिक इस गीत में स्त्री के मनोभावों का वर्णन कुछ इस प्रकार है-
चलेयो महीना चैत्र मेरिये चैत्र चिंता मेरे मन बसी। गए परदेस आज बी नी आओंदे।
आयो महीना बैसाख आली पाली दाख। जियुड़ा उदास जियुड़े नू डोलदी मन बीच करदी विचार मुख तो न बोलदी पिया गए परदेस घड़ी पल न्हयालदी। इसी प्रकार बारहों महीनों का वर्णन बहुत सुंदर उपमाओं द्वारा रचित है। गीत की स्वर लहरियां भी अति मधुरता लिए हुए हैं। वर्षभर कालचक्र के बदलते परिदृश्य नारी मन की व्यथा को विरह की स्थिति में उद्वेलित करते हैं। जेठ की तपती दोपहरी, सूखे जल स्त्रोत उसे मछली की तरह तड़पाते हैं। ऐसे मौसम में विरह की आग में जल रही पत्नी पति से कहती है- चलेयों म्हीना हाड़ नदियां पहाड़1घोड़े रा सवार हाथा लई तलवार देखयां केस्सी जो मारदां जोबण भरी घरे नार देखयां केस्सी जो मारदा1बारामासा एक ऐसा ऋतुभाव है जब विरह की आग में जल रही पत्नी को मेघों का बरसना, पिया बिन सूनी सेज, माघ मास की कड़कती ठंड कुछ अच्छा नहीं लगता। पिया के बिना उसे एक-एक दिन बरस की तरह प्रतीत होता है। सूनी आंखें..सब फीका- फीका लगता हैं। अंत में मदमाते फागुन के आने पर उसके पिया भी आ जाते हैं तब वह यह गीत गाती है: आयो महीना फागण पिया संग मग्न फागुआ में खेलदी अत्र अबीर गुलाल1सातों रंग घोलदी खेलदी मैं1बाजदी मैं ताल मृदंग आज पिया घर आया।