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तो इसलिए भगवान भी खेलते थे होली

जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें? हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 02 Mar 2017 02:43 PM (IST)Updated: Fri, 03 Mar 2017 09:21 AM (IST)
तो इसलिए भगवान भी खेलते थे होली
तो इसलिए भगवान भी खेलते थे होली

 रंगों से सराबोर होली को खेलने में देवतागण भला पीछे क्यों रहे? राधा-कृष्ण की होली के रंग ही कुछ और है। ब्रज की होली का रंग ही निराला है। जब भी होली का जिक्र आता है तो ब्रज की होली का नाम सबसे पहले लिया जाता है, क्योंकि होली की मस्ती की शुरूआत इसी ब्रज की पावन धरती से हुई थी। रास रचैया भगवान श्री कृष्ण गोपियों और राधा के साथ जमकर होली खेलते।.होली का त्योहार राधा और कृष्ण की पावन प्रेम कहानी से भी जुडा हुआ है।

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राधा-कृष्ण की होली 

वसंत के सुंदर मौसम में एक दूसरे पर रंग डालना उनकी लीला का एक अंग माना गया है। मथुरा और वृन्दावन की होली राधा और कृष्ण के इसी रंग से है। गोपियों और राधा के साथ कृष्ण होली खेल रहे हैं। कमल समान सुन्दर मुख वाली राधा कृष्ण के मुख पर कुंकुम लगाने की घात में है। गुलाल फेंकने का अवसर ताक रही है। चारों और गुलाल उड़ रहा है।

अपने कृष्ण के संग रंग में रंगोली बनाकर ब्रजवासी भी होली खेलने के लिए हुरियार बन जाते हैं और ब्रज की नारियाँ हुरियारिनों के रूप में साथ होते हैं और चारों ओर एक ही स्वर सुनाई देता है :-

 आज बिरज में होली रे रसिया, होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया। 
उड़त गुलाल लाल भए बादर, केसर रंग में बोरी रे रसिया।
 
 राम सीता की होली
अयोध्या में श्रीराम सीता जी के संग होली खेलते रहे हैं। एक ओर राम लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न हैं तो दूसरी ओर सहेलियों के संग सीता जी। केसर मिला रंग घोला गया है। दोनों ओर से रंग डाला जा रहा है। मुँह में रोरी रंग मलने पर गोरी तिनका तोड़ती लज्जा से भर गई है। झांझ, मृदंग और ढपली के बजने से चारों ओर उमंग ही उमंग है। देवतागण आकाश से फूल बरसा रहे हैं। देखिए इस मनोरम दृश्य की एक झांकी :-
खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी
इत राम लखन भरत शत्रुघ्न, उत जानकी सभ गोरी, केसर रंग घोरी।
छिरकत जुगल समाज परस्पर, मलत मुखन में रोरी, बाजत तृन तोरी।
बाजत झांझ, मिरिदंग, ढोलि ढप, गृह गह भये चहुँ ओरी, नवसात संजोरी।
साधव देव भये, सुमन सुर बरसे, जय जय मचे चहुँ ओरी, मिथलापुर खोरी।
उमा महेश्वर की होली
 जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें?  हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला,चमकती हुई आँखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भुत दृश्य की झाँकी :-
आजु सदासिव खेलत होरी जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी
वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।
शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। ऐसा लग रहा है मानो कैलाश पर्वत के ऊपर वटवृक्ष की छाया है। दिशाओं की पीले पर्दे खिंचे हुए हैं जिसकी छवि इंद्रासन जैसी दिखाई देती है। आक,धतूरा, संखिया आदि खूब पिया जा रहा है और सबने एक दूसरे को रंग लगाने की बजाय स्वयं को ही रंग लगा कर अद्भुत रूप बना लिया है, जिसे देखकर स्वयं पार्वती जी भी हँस रही हैं :-
सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी,गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चहुँ ओरी
पीत बितान तने चहुँ दिसि के, अनुपम साज सजोरी छवि इंद्रासन सोरी।
आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी, नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी
अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भूत रूप बनोरी, हँसे गिरिजा मुँह मोरी।

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