अद्वैत वेदांत के प्रणेता याज्ञवल्क्य
महर्षि याज्ञवल्क्य का अद्वैत दर्शन हमें वृहदारण्यक उपनिषद में मिलता है। उन्होंने आत्मा को ही ब्रहमा की संज्ञा दी है। भारतीय दर्शन की जितनी शाखाएं हैं, सबका निचोड़ उपनिषदों में मिलता है। उपनिषदों में सबसे प्राचीन तथा आकार में सबसे बड़ा उपनिषद बृहदारण्यक है। इस उपनिषद के दार्शि
महर्षि याज्ञवल्क्य का अद्वैत दर्शन हमें वृहदारण्यक उपनिषद में मिलता है। उन्होंने आत्मा को ही ब्रहमा की संज्ञा दी है।
भारतीय दर्शन की जितनी शाखाएं हैं, सबका निचोड़ उपनिषदों में मिलता है। उपनिषदों में सबसे प्राचीन तथा आकार में सबसे बड़ा उपनिषद बृहदारण्यक है। इस उपनिषद के दार्शनिक याज्ञवल्क्य हैं। उन्होंने राजा जनक के दरबार में तत्कालीन समस्त महान दार्शनिकों से शास्त्रार्थ करके अपने दर्शन को सर्वोच्च सिद्ध किया था। अद्वैत वेदांत का शास्त्रीय रूप उन्हीं से आरंभ होता है। विष्णुपुराण के अनुसार, याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद को सूर्य से प्राप्त किया था और शुक्ल यजुर्वेद की समस्त शाखाएं याज्ञवल्क्य द्वारा ही प्रवर्तित की गई हैं।
याज्ञवल्क्य अध्यात्मवेत्ता एवं दार्शनिक थे। उन्हें पुराणों में ब्रह्मा का अवतार कहा गया है। पुराणों में कहा गया है कि वे वेदाचार्य महर्षि वैशंपायन के शिष्य थे, जिनसे उन्हें वेद आदि का ज्ञान प्राप्त हुआ था। एक पौराणिक कथा के अनुसार, उनका अपने गुरु महर्षि वैशंपायन से कुछ विवाद हो गया। गुरुजी ने नाराज होकर कहा- मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मंत्रों का उपदेश दिया है, उनका वमन कर दो। इस पर याज्ञवल्क्य ने सारी शिक्षा उगल दी, जिन्हें वैशंपायन के दूसरे शिष्यों ने तित्तिर (तीतर) बनकर ग्रहण कर लिया। यजुर्वेद की उस शाखा को तैत्तिरीय शाखा के नाम से जाना गया। वेदों के ज्ञान से शून्य हो जाने के बाद उन्होंने सूर्य से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। सूर्य से प्राप्त शुक्ल यजुर्वेद संहिता के मुख्य आचार्य याज्ञवल्क्य हैं। इस संहिता में चालीस अध्याय हैं। आज रुद्राष्टाध्यायी नाम से जिन मंत्रों से रुद्र (भगवान शिव) की आराधना होती है, वे इसी संहिता में हैं। इस संहिता में शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यकोपनिषद भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा प्राप्त है।
याज्ञवल्क्य का पूरा आध्यात्मिक दर्शन शास्त्रार्थो द्वारा ही उपजा है। गार्गी, मैत्रेयी और कात्यायनी आदि विदुषी नारियों से उनके ज्ञान-विज्ञान एवं ब्रह्म संबंधी शास्त्रार्थ हुए थे। राजा जनक अपनी सभा में शास्त्रार्थ का आयोजन किया करते थे। बृहदारण्यक उपनिषद में ये संवाद हैं, जिनसे उनका दर्शन अभिव्यक्त होता है।
याज्ञवल्क्य आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ है, वह अज्ञान पर आधारित है।
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