जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती
जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। यदि हम अपने अंदर के सूरज का उदय करेंगे तो अंधकार का अस्तित्व स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।
जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। यदि हम अपने अंदर के सूरज का उदय करेंगे तो अंधकार का अस्तित्व स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।
पचास यानी 5 (पांच) और 0 (शून्य)...। शून्य हटते ही पचास पांच हो जाता है। पचास वर्ष का व्यक्ति अगर अपने जीवन से मात्र पांच चीजों को शून्य (समाप्त) कर दे तो वह पांच साल के बच्चे जैसा मासूम और निर्दोष हो सकता है। क्या हैं वे पांच चीजें?
पहली चीज है अहंकार। यह कभी भी नहीं होना चाहिए, मगर पचास साल के बाद तो बिल्कुल शून्य हो जाना चाहिए। ऐसा करना आसान नहीं है। इसके लिए आपको किसी का होना पड़ेगा। किसी का होने पर ही अपनापन छूटता है। हो जाओ राम के, कृष्ण के, सद्गुरु के। अहंकार छूटने लगेगा। शंकराचार्य ने भी कहा है कि व्यक्ति का अहंकार शून्य होना चाहिए। मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर व्यक्ति में अहंकार करने लायक है क्या? एक अहंकार के कारण कितने दोष व्यक्ति को ग्रस रहे हैं? हम क्यों घाटे का सौदा करते हैं?
दूसरी बात है, अंधकार से शून्य हो जाओ। तमसो मा ज्योतिर्गमय...। अंधेरे से उजाले की तरफ बढ़ो। अंधकार का मतलब है अज्ञानता, राग-द्वेष, परनिंदा, क्रोध, स्वार्थ, मोह आदि...। ज्ञान का, भक्ति का और सेवा का
प्रकाश हमारे इंतजार में रहता है और हम अंधेरे की चादरों को ओढ़े घूमते रहते हैं। एक बात याद रखना, जिसके भीतर सुबह हो जाती है, उसकी कभी रात नहीं होती। अंदर के सूरज का उदय करो तो अंधकार खुद-ब-खुद शून्य अर्थात विलीन हो जाएगा।
तीसरा है, अधिकार को शून्य कर दो। एक उम्र के बाद मन से अधिकार की भावना खत्म हो जानी चाहिए। घर-परिवार, समाज में हमारे हिसाब से लोग चलें, इस भावना को शून्य कर देना चाहिए। पचास वर्ष की आयु के बाद भी अगर बड़प्पन का अहसास नहीं छोड़ा जाएगा तो हमारा आने वाला कल उसे छुड़वा देगा। कोई घटनाक्रम छुड़वा देगा, कोई बीमारी छुड़वा देगी। एक सीमा से ज्यादा बोझ
किसी पर नहीं लादा जा सकता। जरा सोचिए तो सही, हमने अपने ही परिवार के सदस्यों पर अपने अधिकार का कितना अधिक बोझ लाद रखा है। जो अधिकार जताना था, जता लिया। पचास के बाद उसे समेट लेना चाहिए। याद रखना, अधिकार कभी मांगने से नहीं मिलता। मिलेगा भी तो नकली होगा। अधिकार हमेशा बिना मांगे, बिना जताए ही मिलता है। जब अधिकार का आग्रह छोड़ दोगे तो परिवार हो या समाज, लोग मुट्ठी भर-भरकर अधिकार देंगे। इसकी शुरुआत अपने परिवार से, अपने आसपास से करके तो देखो।
चौथा है अलंकार शून्य हो जाएं। हमारे नाम के आगे कोई उपाधि लगे, कोई विशेषण लगे, इस भावना से मुक्त हो जाओ। नाम के साथ उपाधि लगते ही मोहग्रस्त हो जाना, कोई दोष आ जाना स्वाभाविक है। सीता की खोज कर जब हनुमान लौटे तो राम ने उनकी
प्रशंसा की। हनुमान ने नजरें नीचे करते हुए कहा कि प्रभु, लंका के राक्षसों से कोई डर नहीं था, मगर आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो डर लग रहा है कि कहीं मेरे मन में अहंकार न आ जाए। इस बात का ध्यान रखना कि समाज अगर हमारे नाम के आगे कोई विशेषण लगाता है तो वह हमारी योग्यता का प्रमाण नहीं है। वह तो समाज की हमसे अपेक्षा है कि वह हमें इस रूप में देखना चाहता है। यदि लोग हमें परम पूज्य कहने लगें तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम सचमुच परम पूज्य हैं। इसका मतलब यह है कि लोग चाहते हैं कि हम परम पूज्य बनें।
पांचवां है अंगीकार शून्य हो जाएं। पचास की उम्र के बाद किसी वस्तु को अंगीकार करने की भावना मिटा देनी चाहिए।
कोई परिस्थिति ऐसी बने कि किसी वस्तु को अंगीकार करना पड़े तो कम से कम उतना लौटा भी देना चाहिए। वह भी इस तरह कि किसी को पता भी न चले।