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सृजनात्मक विचारों की विजय है विजयादशमी

भगवान श्रीराम हार एवं जीत के भाव से परे एक सम एवं केंद्रीय चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। रावण से उनका युद्ध समान्य हार-जीत का मसला नहीं, बल्कि ध्वंसात्मक शक्तियों पर सृजनात्मक विचारों की विजय है। विजयादशमी (3 अक्टूबर) पर डॉ. विजय अग्रवाल का आलेख.. विजय यानी जीत। यह दो त

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 03 Oct 2014 11:56 AM (IST)Updated: Fri, 03 Oct 2014 11:59 AM (IST)
सृजनात्मक विचारों की विजय है विजयादशमी

भगवान श्रीराम हार एवं जीत के भाव से परे एक सम एवं केंद्रीय चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। रावण से उनका युद्ध समान्य हार-जीत का मसला नहीं, बल्कि ध्वंसात्मक शक्तियों पर सृजनात्मक विचारों की विजय है। विजयादशमी (3 अक्टूबर) पर डॉ. विजय अग्रवाल का आलेख..

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विजय यानी जीत। यह दो तरह की होती है। एक होती है- स्थितिगत, और दूसरी होती है- भावपरक। स्थितिगत विजय में दो पक्ष होते हैं, जिसमें एक पक्ष जीतता है और दूसरा पक्ष हारता है। यह हार-जीत का खेल होता है। इसमें एक हारता है, तभी दूसरे की जीत होती है। एक दूसरे तरह की विजय होती है, जिसे 'भावपरक विजय' कहा गया है।

यह जीत विचित्र किस्म की होती है। यहां हार और जीत की बाजी नहीं लगती। यहां ऐसा भी हो सकता है कि हारकर भी जीत का एहसास हो। जब एक नौसिखिया खिलाड़ी किसी नामी खिलाड़ी से सम्मानजनक फर्क से हारता है, तो उसे अपनी हार जीत जैसी लगती है। तर्कशास्त्र के गुरु की जीत होती ही उस क्षण है, जिस क्षण वह अपने शिष्य से पराजित होता है। यहां पराजय में विजय है। खोने में पाना है। यह विजय नहीं है, सिर्फ विजय का भाव है। हो सकता है कि यहां शिष्य जीतकर भी मन ही मन हार मान रहा हो।

एक सच्चा पुत्र अपने पिता को हराकर जीत का अनुभव नहीं कर सकता। सच पूछिए तो जिस व्यक्ति के अंदर इस तरह के उदात्त भाव के बीज होते हैं, वह कभी हार-जीत के चक्कर में पड़ता ही नहीं है। इसलिए वह हमेशा विजय के भाव में ही रहता है। भगवान श्रीराम की जीत विजयादशमी के दिन प्राप्त मात्र दशानन पर जीत का प्रतीक नहीं है। श्रीराम तो हार एवं जीत के भाव से परे एक सम एवं केंद्रीय चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। राम-रावण युद्ध कोई ध्वंसात्मक युद्ध नहीं, बल्कि सृजनात्मक विचारों का युद्ध था। ध्वंसात्मकता पराजित हुई और सृजनात्मकता की विजय हुई। यदि राम की जीत एक राजा पर प्राप्त की गई जीत होती, तो उन्हें स्वयं लंका का राजा बन जाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने विभीषण को लंका का राजा बनाया। जाहिर है कि उनका मूल मकसद रावण को हराना नहीं, बल्कि सीता जी को उसकी कैद से छुड़ाना और उसके अहंकार का अंत करना था। राम ने इस तथ्य को स्थापित किया कि अपने उद्देश्य को पाने के लिए किसी अन्य को पराजित करना आवश्यक नहीं है। यह भावना संघर्ष को जन्म देती है, प्रतियोगिता की शुरुआत करती है, जिससे तनाव बढ़ता है। जैसे ही हम इसमें पड़ते हैं, वैसे ही हमारे हारने की तैयारी शुरू हो जाती है। जापान में यह बात यूं ही नहीं कह दी गई है कि 'जीतने के लिए बुद्ध की शांति चाहिए।' राम की विजय इसी श्रेणी की विजय है और इसी विजय का संदेश गौतम बुद्ध ने दुनिया को यह कहकर दिया कि 'लोगों के हृदय को जीतकर उस पर राज करो।' बुद्ध के समकालीन महावीर स्वामी ने इसे इस तरह रखा कि खुद को जीतो, और महान वीर बन जाओ। भारत में विजय की अवधारणा एक नौतिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक उपक्रम है। रामचरित मानस का प्रसंग है राम-रावण के युद्ध के आरंभ का। राजा रावण तो युद्ध में आया है रथ पर सवार होकर, लेकिन राम तो वनवासी हैं, और प्रवासी भी। विभीषण को दुख होता है कि राम के पास रथ नहीं है। भौतिक साधनों को शक्ति का आधार मानने वाले विभीषण को भगवान राम समझाने की शुरुआत इन शब्दों में करते हैं-

'सुनो विभीषण, जिससे विजय होती है, वह रथ दूसरा ही है। शौर्य और धर्म उस रथ के पहिये हैं। सत्य और शक्ति उसरी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, संयम और परोपकार उसके चार घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं..।'

विजय का यही दर्शन जीवन एवं जगत को संतुलित और शांतिपूर्ण बना सकता है तथा रचनात्मक भी। इसलिए विजयादशमी का पर्व मूलत: ध्वंसात्मक शक्तियों पर सर्जनात्मक विचारों की विजय का प्रतीक ही माना जाना चाहिए।


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