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अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं

अमावस्या की रात अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य को कष्ट पहुंचाने का स्वर्णिर्म अवसर होता है ।

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 05 May 2016 03:25 PM (IST)Updated: Fri, 06 May 2016 11:04 AM (IST)
अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं

अमावस्या के दिन, रज-तम फैलाने वाली अनिष्ट शक्तियां (भूत, प्रेत, पिशाच ), गूढ कर्मकांडों में (काला जादू) फंसे लोग और प्रमुख रूप से राजसिक और तामसिक लोग अधिक प्रभावित होते हैं और अपने रज-तमात्मक कार्य के लिए काली शक्ति प्राप्त करते हैं । यह दिन अनिष्ट शक्तियों के कार्य के अनुकूल होता है, इसलिए अच्छे कार्य के लिए अपवित्र माना जाता है ।

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चंद्रमा के रज-तमसे मन प्रभावित होने के कारण पलायन करना (भाग जाना), आत्महत्या अथवा भूतों द्वारा आवेशित होना आदि घटनाएं अधिक मात्रा में होती हैं । विशेषरूप से रात्रि के समय, जब सूर्य से मिलने वाला ब्रह्मांड का मूलभूत अग्नितत्त्व (तेजतत्त्व) अनुपस्थित रहता है, अमावस्या की रात अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य को कष्ट पहुंचाने का स्वर्णिर्म अवसर होता है ।

पूर्णिमा की रातमें, जब चंद्र का प्रकाशित भाग पृथ्वी की ओर होता है, अन्य रात्रियों की तुलना में मूलभूत सूक्ष्म-

स्तरीय रज-तम न्यूनतम मात्रा में प्रक्षेपित होता है । अतः इस रात में अनिष्ट शक्तियों, रज-तमयुक्त लोगों अथवा गूढ कर्मकांड (काला जादू) करने वाले लोगों को रज- तमात्मक शक्ति न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध होती है पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का लाभ उठाकर कष्ट की तीव्रता बढाती हैं ।

पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्तञ में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है। जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तिहयों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है।कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।

इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है । वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।

अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। आध्यात्मिक शोध द्वारा यह भी स्पष्ट हुआ है कि अमावस्या और पूर्णिमा के दिन मनुष्य पर होने वाले प्रभाव में सूक्ष्म अंतर होता है । पूर्णिमा के चंद्रमा का प्रतिकूल परिणाम साधारणतः स्थूलदेह पर, जबकि अमावस्या के चंद्रमा का परिणाम मन पर होता है ।

अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के हानिकारी प्रभाव आध्यात्मिक कारणों से होते हैं, इसलिए केवल आध्यात्मिक उपचार अथवा साधना ही इनसे बचने में सहायक हो सकती है ।

वैश्विक स्तर पर इन दिनों में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेनेअथवा क्रय-विक्रय करने से बचना चाहिए; क्योंकि अनिष्ट

शक्तियां इन माध्यमों से अपना प्रभाव डाल सकती हैं । पूर्णिमा और अमावस्या के २ दिन पहले तथा २ दिन पश्चात आध्यात्मिक साधना में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि करें ।अपने पंथ अथवा धर्म के अनुसार देवताका नाम जप करना लाभदायी होता है और आध्यात्मिक सुरक्षा के लिए श्री गुरुदेव दत्त का जप करें ।

अमावस्या का व्रत अर्थात् निराहार रहकर उपवास करना चाहिये। उप-समीप, वास-निवास-आवस अर्थात् परमात्मा के समीप रहना चाहियें अमावस्या के दिन ऐसे ही कार्य करने चाहिये जो परमात्मा के पास में ही बिठाने वाले हो, सांसरिक खेती-बाडी व्यापार आदि कर्म तो परमात्मा से दूर हटाने वाले है। और संध्या हवन, सत्संग, परमात्मा का स्मरण ध्यान कर्म परमात्मा के पास बैठाते हैं इसलिए महीने में एक दीन उपवास करना चाहिये। और वह दिन अमावस्या का ही श्रेश्ठ मान्य हैं ।

क्योंकि सुर्य और चन्द्रमा ये दोनों शक्तिशाली ग्रह अमावस्या के दिन एक राषि में आ जाते हैं अर्थात चन्द्र जब तक दोनो एक राषि में रहते हैं तब तक ही अमावस्या रहती हैं। चन्द्रमा सुर्य के सामने निस्तेज हो जाता हैं। अर्थात चंन्द्र की किरणें नश्ट प्रायः हो जाती हैं। संसार में भयंकर अन्धकार छा जाता है। चन्द्रमा ही सभी औषधियों को रस देने वाला हैं जब चन्द्रमा ही पुर्ण प्रकाशक नहीं होगा तो औषधी भी निस्तेज हो जायेगी। ऐसयी निस्तेज अन्न, बल, वीर्य, बुध्दि वर्धक नहीं हो सकता किन्तु बल वीर्य बुध्दि आदि को मलीन करने वाला ही होगा। इसलिये अमावस्या का व्रत करना चाहिये उस दिन अन्न खाना निशेध किया गया हैं और व्रत का विधान किया गया हैं।

वेदों में भी कहा गया हैं - दर्षपौर्णमास्यायां यजेत् अर्थात अमावस्या और पूर्णमासी को निष्चित ही यज्ञ करें। वेदों में अमावस्या का महत्व बताया गया हैं। अमावस्या के समय जब तक सूर्य चन्द्र एक राषि में रहे, तब तब कोई भी सांसरिक कार्य जैसे-हल चलाना, कसी चलाना, दांती, गंडासी, लुनाई, जोताई, आदि तथा इसी प्रकार से गृह कार्य भी नहीं करना चाहिये। उस दिन तो केवल परमात्मा का भजन ही करना चाहिए।


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