23वें तीर्र्थंकर पाश्र्वनाथ: सह-अस्तित्व का दर्शन
23वें तीर्र्थंकर पाश्र्वनाथ जी ने अपने अनेकांत दर्शन में सह-अस्तित्व की अवधारणा दी, जिसमें सभी के प्रति समभाव को स्थापित किया गया है...
23वें तीर्र्थंकर पाश्र्वनाथ जी ने अपने अनेकांत दर्शन में सह-अस्तित्व की अवधारणा दी, जिसमें सभी के प्रति समभाव को स्थापित किया गया है...
कीड़ों के संक्रमण से अच्छी खेती खराब होने लगी, तो हमने उन्हें अपना विरोधी मान लिया। कीटनाशक दवाओं का प्रयोग होने लगा। परिणाम यह हुआ कि उन दवाओं से केंचुए आदि कई ऐसे जीव भी नष्ट हो गए, जो भूमि को उपजाऊ बनाते थे। दवाएं मिट्टी में मिल गईं और फल, सब्जी, अनाज, नदी का पानी आदि सब कुछ प्रदूषित हो गया। कीटनाशक दवाएं हमारे शरीर को नुकसान पहुंचाने लगीं।
खेतों में पक्षी फसल खा जाते हैं। हमें लगा पक्षी हमारे विरोधी हैं। हमने पक्षियों को मारने और भागने का प्रबंध कर दिया। हमें यह पता ही नहीं था कि पर्यावरण पद्धति में सभी जीव और वनस्पतियां एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। वे पक्षी खेत के उन्हीं कीड़ों को चुन-चुन कर खाते थे, जो फसल को नुकसान पहुंचाते थे। इस सेवा के बदले वे कुछ दाने खा भी लें तो यह उनका हक है।
दोनों उदाहरणों को यदि हम 23वें तीर्र्थंकर पाश्र्वनाथ जी के अनेकांत दर्शन के दृष्टिकोण से देखें तो हम पाएंगे कि हमें दोनों ही काम करने होंगे। पक्षियों को उड़ाते भी रहना होगा, ताकि वे ज्यादा फसल न नष्ट कर दें और आपसे नजर बचा कर अगर वे जितने दाने खा लेते हैं, तो उनका हक मानकर उन्हें जीने देना होगा। यह इस दर्शन की सह-अस्तित्व की भावना है। पाश्र्वनाथ जी ने समता, अहिंसा और अनेकांत दर्शन के माध्यम से सह-अस्तित्व की बात कही, क्योंकि इस अवधारणा से शांति संभव है। समस्त जीवों को समभाव से देखना आवश्यक है। किसी एक समुदाय में अन्य की अपेक्षा असाधारण विशेषताएं नहीं होतीं। उनके अनुसार, प्राणी-मात्र आत्मतुल्य है। प्रत्येक व्यक्ति को सभी प्राणियों को अपने जैसा ही मानना चाहिए। सबके प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए। यही सह-अस्तित्व है। 'सिर्फ मैं नहीं, बल्कि हम और हम सभीÓ यह पाश्र्वनाथ के सह-अस्तित्व का उद्घोष-वाक्य है। समाज में धर्म, संप्रदाय, रूप, गुणों में भी विभिन्नता होती है। एक ही प्रकार की जीवन प्रणाली, एक ही प्रकार के आचार-विचार की साधना न तो व्यावहारिक है और न ही संभव। अनेकांतवाद की सह-अस्तित्व की अवधारणा सारे झगड़ों का हल सुझाती है।
अनेकांतवाद में आचार-विचार में सहिष्णुता एवं सत्प्रवृति का योग आवश्यक है, ताकि हम दूसरे पक्ष को भी सुनें, ताकि उसके सत्य तक भी पहुंच सकेें। अनेकांत का अर्थ है जीवन के सभी पहलुओं की एक साथ स्वीकृति। इस दर्शन में सारे विचार एक-दूसरे के पूरक हैं। हमारी सीमित दृष्टि के कारण विरोध दिखाई पड़ता है। अनेकांत दर्शन के अनुसार, एक वस्तु में अनंत विरोधी गुण-धर्म होते हैं। इनमें सह-अस्तित्व है, जिसके कारण वस्तु के सही स्वरूप की पहचान होती है। आज हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम सिर्फ अपने हित के बारे में सोचते हैं। जो बात हमें पसंद नहीं है या हमारे खिलाफ दिखाई देती है, हम उसका विनाश करना चाहते हैं। विरोध को स्वीकार करने की कला पाश्र्वनाथ जी ने अनेकांत दर्शन के माध्यम से सिखाई। उन्होंने खोजा कि जो विरोध हमें दिखाई दे रहा है, वह हमारे ही अस्तित्व का एक अनिवार्य अंग है। वास्तव में विरोध है ही नहीं, मात्र हमें विरोध प्रतीत होता है। हम जब स्वीकार कर लेंगे कि विरोध हमारे ही अस्तित्व का अंग है, तब सह-अस्तित्व की भावना विकसित हो पाएगी।