किंवदंती है कि महाभारत काल में महान योद्धा रतन यक्ष ही देव कमरूनाग है
शिवरात्रि शुरु होने से लेकर समाप्ति तक देव कमरूनाग टारना की पहाड़ी में प्रवास करते है। रतन यक्ष महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से युद्ध में शामिल हो रहे थे।
मंडी जनपद के देवी-देवताओं में बड़ादेव कमरूनाग का विशेष स्थान है। शिवरात्रि महोत्सव में शिरकत करने वाले बड़ादेव कमरूनाग जनपद के देवी-देवताओं में महामहिम हैं। देव परंपरा के अुनसार बड़ादेव कमरूनाग को मंडी जनपद में वरिष्ठ देवता के रूप में पूजा जाता है।
बड़ादेव को वर्षाप्रदाय यानी बारिश देने वाले देवता के रूप में भी पूजा जाता है। भारी बारिश अथवा सूखे के समय जनपद के लोग बड़ादेव की शरण में जाते हैं। यहां तक कि शिवरात्रि मेलों में बारिश होने के पीछे भी बड़ादेव कमरूनाग के रुष्ट होने को अहम कारण माना जाता है। इस दौरान मेला कमेटी भी बड़ादेव की मनौती करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती है। देवता का सूरज पंखा परंपरागत लोक वाद्यों की धुन पर मंडी नगर पहुंचता है। देव कमरूनाग के वाद्ययंत्रों की थाप आम देवी देवताओं की लोक धुनों से अलग ही है। बड़ादेव कमरूनाग के सूरज पंखें को मंडी रियासत के अंतिम राजा राजा जोगिंद्रसेन ने कपड़े से निर्मित करवाया था, लेकिन पुराना पडऩे पर इसे सोने और चांदी से बनवाया गया है। किंवदंती है कि महाभारत काल में महान योद्धा रतन यक्ष ही देव कमरूनाग है।
शिवरात्रि शुरु होने से लेकर समाप्ति तक देव कमरूनाग टारना की पहाड़ी में प्रवास करते है। रतन यक्ष महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से युद्ध में शामिल होने के लिए जा रहे थे। इस बात की भनक भगवान श्रीकृष्ण को लग गई। उन्हें रतन यक्ष की शक्ति का अंदाजा था। ऐसे में पांडव कौरवों को कुरूक्षेत्र के रण में हराने में असमर्थ होते। भगवान श्रीकृष्ण ने छलपूर्वक रतन यक्ष की परीक्षा लेते हुए उनका सर वरदान में मांग लिया। उन्होंने अपना रूप बदलकर रतन यक्ष से पूछा कि आप अर्जून जैसे धनुर्धर का मुकाबला कैसे कर पाओगे। इस पर रतन यक्ष ने एक ही तीर से पीपल के सारे पत्ते बिंध दिए। श्रीकृष्ण ने एक पत्ता अपने पैर के नीचे दबा रखा था। रतन यक्ष ने कहा अपना पैर हटाओ जैसे ही उन्होंने पैर हटाया तीर ने उस पत्ते को भी बिंध दिया। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने छल से वरदान में उनका सिर मांग लिया। रतन यक्ष ने महाभारत का युद्ध देखने की दच्छा जाहिर की। इसे स्वीकार करते हुए श्रीकृष्ण ने युद्ध स्थल के बीचोंबीच उनका सिर बांस के डंडे से ऊंचाई पर बांध दिया। युद्ध के बाद पांडवों ने कमरूनाग के रूप में रतन यक्ष को अपना आराध्यदेव माना।
पांडवों के हिमालय प्रवास के दौरान कमरूनाग की पहाडिय़ों में स्थापित कर दिया। हर साल आषाढ़ माह की एक तारीख को यहां विशाल मेला लगता है। इस दौरान हजारों की तादाद में लोग देवता के दर्शनार्थ पहुंचते हैं। झील में नकदी, आभूषण आदि चढ़ाने की परंपरा है।