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श्रीराम शर्मा आचार्य का चिंतन..भीतर के भगवान

आत्म-सत्ता को यदि परिष्कृत कर लिया जाए, तो वही परमात्म-सत्ता में विकसित हो सकती है अर्थात यदि हम अपने गुणों को निखार लें, तो हम अपने भीतर के भगवान को जान सकते हैं। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य का चिंतन.. समझा जाता है कि विधाता ही मात्र निर्माता है। ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता

By Edited By: Published: Tue, 24 Dec 2013 11:40 AM (IST)Updated: Tue, 24 Dec 2013 12:01 PM (IST)
श्रीराम शर्मा आचार्य का चिंतन..भीतर के भगवान

आत्म-सत्ता को यदि परिष्कृत कर लिया जाए, तो वही परमात्म-सत्ता में विकसित हो सकती है अर्थात यदि हम अपने गुणों को निखार लें, तो हम अपने भीतर के भगवान को जान सकते हैं। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य का चिंतन..

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समझा जाता है कि विधाता ही मात्र निर्माता है। ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता। इन दोनों बातों से कोई भ्रम में भी पड़ सकता है कि परमात्मा कहीं दूर बैठा है। अगर ऐसा है, तो इन धारणाओं के साथ इतना और जोड़ना चाहिए कि विधाता से मिलने का सबसे निकटवर्ती स्थान अपना अंत:करण ही है। वैसे तो ईश्वर सर्वव्यापी है, उसे कहींभी माना जा सकता है, पर यदि दूर जाना संभव न हो, तो उसे अपने अंत:करण को टटोलना चाहिए। उसी में बैठे परमात्मा को हृदय खोलकर मिलने की अभिलाषा पूरी कर लेनी चाहिए। काल्पनिक उड़ाने भरने से बात कुछ नहीं बनती।

यह बात समझ लें कि ईश्वर जड़ नहीं, बल्कि चेतन है। इसे मूर्तियों तक सीमित नहीं किया जा सकता। चेतना वस्तुत: चेतना के साथ ही दूध-पानी की तरह घुल-मिल सकती है। मानवी अंत:करण ही ईश्वर का सबसे निकटवर्ती और सुनिश्चित स्थान हो सकता है। ईश्वर दर्शन, साक्षात्कार और प्रभु सान्निध्य जैसी उच्च स्थिति का रसास्वादन जिन्हें वस्तुत: करना हो, उन्हें बाहरी दुनिया की ओर नहीं, बल्कि अपने ही अंत:करण में प्रवेश करना चाहिए और देखना चाहिए कि जिसे पाने के लिए इतनी मेहनत की जा रही थी, वह तो अत्यंत ही निकट है।

एक बार मंदिर बनाने को अतिशय व्याकुल भक्त ने किसी सूफी संत से मंदिर की रूपरेखा बनाने का अनुरोध किया। संत ने गंभीरता से कहा, इमारत अपने बजट के हिसाब से बना लो, पर एक बात का ध्यान रखो। उसमें भगवान की मूर्ति के स्थान पर एक विशालकाय दर्पण स्थापित करवाना, ताकि उसमें अपनी छवि देखकर इस वास्तविकता का बोध हो सके कि ईश्वर का वास उसकी इसी काया के भीतर ही है। ताकि यह समझा जा सके कि आत्म-सत्ता को यदि परिष्कृत किया जाए, तो वही परमात्म-सत्ता में विकसित हो सकती है। वह परिष्कृत आत्मसत्ता वरदानों की अनवरत वर्षा भी करती रह सकती है।

भक्त को अपनी सस्ती भावुकता से छुटकारा मिला। उसने मंदिर में एक बड़ा हाल बनाकर भगवान की मूर्ति के स्थान पर बड़ा-सा दर्पण लगा दिया। उसे देखकर भक्त अपने भीतर के भगवान के दर्शन करने लगे और उसे और भी निखारने, संवारने का प्रयत्न करने लगे।

मनोविज्ञानी कहते हैं कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही करता है एवं वैसा ही बन जाता है। किए हुए भले-बुरे कर्म ही उसके सामने सौभाग्य या संकट बनकर सामने आते हैं। उन्हीं के आधार पर सुख-दुख का संयोग बनता है। इसलिए परिस्थितियों की अनुकूलता और बाहरी सहायता प्राप्त करने की कोशिश में घूमने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि भावना, मान्यता, आकांक्षा, विचारणा और गतिविधियों को परिष्कृत किया जाए। साहस जुटाकर प्रयत्नरत हुआ जाए और अपने बोए हुए को काटने के सुनिश्चित तथ्य पर विश्वास किया जाए। बिना भटकाव का यही एक सुनिश्चित मार्ग है।

अध्यात्मवेत्ता भी इसी प्रतिपादन पर तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य अपने स्वरूप को, सत्ता एवं महत्ता को, लक्ष्य एवं मार्ग को भूलकर ही विपत्तियों में फंसते हैं। यदि अपने को सुधार लें, तो अपना सुधरा प्रतिबिंब व्यक्तियों और परिस्थितियों में चमकता दिखाई पड़ने लगेगा। यह संसार अपने ही उच्चारण को प्रतिध्वनित करता है। अपने जैसे लोगों का ही जमघट साथ में जुड़ जाता है और भली-बुरी अभिरुचि को अधिकाधिक प्रेरित करने में सहायक बनता है। दुर्जनों के इर्द-गिर्द ठीक उसी स्तर की मंडली बनने लगती है। साथ ही यह भी उतना ही सुनिश्चित है कि शालीनता संपन्नों को, सज्जानों को, उच्च स्तरीय प्रतिभाओं के साथ जुड़ने और महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त कर सकने का समुचित लाभ मिलता है।

मैले दर्पण में छवि नहीं दिखती। जलते अंगारे पर राख की परत जम जाए, तो न उसकी गर्मी का आभास होता है, न चमक का। बादलों से ढक जाने पर सूर्य-चंद्र तक अपना प्रकाश धरती तक नहीं पहुंचा पाते। इन्हीं उदाहरणों को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य यदि लोभ की हथकड़ियों, मोह की बेड़ियों और अहंकार की जंजीरों में जकड़ा हुआ रहे, तो उसकी समस्त क्षमताएं नाकारा बनकर रह जाएंगी। बंधुआ मजदूर रस्सी में बंधे पशुओं की तरह बाधित और विवश बने रहते हैं। वे अपना मौलिक पराक्रम गंवा बैठते हैं। वे उसी प्रकार चलने-करने के लिए विवश होते हैं, जैसा बांधने वाला उन्हें दबाता-धमकाता है। कठपुतलियां अपनी मर्जी से न उठ सकती हैं, न चल सकती हैं।

कुसंस्कारों और कुप्रचलनों का दोहरा दबाव ही मनुष्य के मौलिक चिंतन का सही मार्ग अपनाने में भारी अवरोध बनकर खड़ा हो जाता है और उत्कृष्टता की दिशा में सहज संभव हो सकने वाली प्रगति बुरी तरह अवरुद्ध होकर रह जाती है। अंतरात्मा ऊंचे उठने को कहती है और सिर पर छाया हुआ दुष्प्रवृत्तियों का आकाश नीचे गिरने के लिए दबाव बनाता है। फलत: मनुष्य त्रिशंकु की तरह अधर में लटका रह जाता है। यह असमंजस बना ही रहता है कि उसका क्या होगा? भविष्य न जाने कैसा बनेगा?

इस विषम विडंबना से छूटने का एक ही उपाय है कि दोष-दुर्गुणों की जो भारी चट्टानें हमारे सिर पर लदी हैं, उन्हें किसी भी कीमत पर दूर हटाया जाए, अन्यथा उतनी सोच की विपन्नता को सिर पर लादे हुए कुछ दूर तक भी चल सकना हमारे लिए संभव न होगा। वासनाएं हमें नींबू की तरह निचोड़ लेती हैं। जीवन में से स्वास्थ्य, संतुलन, आयुष्य जैसा सब कुछ निचोड़ कर उसे निस्तेज बनाकर रख देती है। अत: एक ही उपाय है स्वयं को परमात्म-सत्ता में विकसित करना।

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