स्वार्थ और परमार्थ के रंग
जो परमार्थ दिखावे के लिए होता है, वह स्वार्थ से भी बुरा है और जो स्वार्थ सबके हित में हो, वह परमार्थ से भी अच्छा है। कथावाचक मोरारी बापू का चिंतन...
जो परमार्थ दिखावे के लिए होता है, वह स्वार्थ से भी बुरा है और जो स्वार्थ सबके हित में हो, वह परमार्थ से भी अच्छा है। कथावाचक मोरारी बापू का चिंतन...
हम जितनी ऊंचाइयों के साथ देखते हैं, स्वार्थ को उतनी ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि अगर नकली है तो परमार्थ भी बुरा है और अगर सच्चा है तो स्वार्थ भी अच्छा है। वास्तव में, जो परमार्थ सिर्फ दिखावे के लिए किया जाता है, वह नकली परमार्थ है। किसी से परमार्थ की चर्चा सुनकर दो मित्र परमार्थ के लिए प्रेरित हुए। एक ने देखा कि सड़क किनारे एक दृष्टिहीन खड़ा है और सड़क पार करने की कोशिश कर रहा है। उसने उस व्यक्ति का हाथ पकड़ा और उसे सड़क पार करा दी। दूसरे युवक को लगा कि दोस्त ने तो परमार्थ कर
दिया, अब वह क्या करे? वह दृष्टिहीन के पास गया और उसका हाथ पकड़कर उसे सड़क पार कराता हुआ, वहीं ले
आया, जहां पहले वह व्यक्ति खड़ा था।
ऐसे परमार्थ का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जहां प्रदर्शन आ जाता है, वहां दर्शन नहीं बचता। प्रदर्शन से शुरुआत हो तो कोई हर्ज नहीं है, मगर प्रदर्शन से दर्शन (फिलॉसफी) में जाना होगा। किसी भी व्यक्ति का सबसे बड़ा स्वार्थ
यह होना चाहिए कि किसी बुद्ध पुरुष, सद्गुरु अथवा परमात्मा का स्मरण बना रहे। जिसने इस सच्चे स्वार्थ को समझ लिया, उसके लिए बाकी स्वार्थ त्यागने योग्य हो जाते हैं। रामचरित मानस में भरत को मैं ऐसा ही स्वार्थी देखता हूं। उन्हें राजपाट से कुछ लेना-देना ही नहीं था। हर वक्त, हर घड़ी सिर्फ एक ही काम... प्रभु राम का स्मरण। हमें भरत जैसा सच्चा स्वार्थी बनना चाहिए। सच्चा स्वार्थी बनने के लिए ऐसी दृष्टि चाहिए कि हम स्वभावगत परमार्थी को समझ पाएं। बुद्ध पुरुष स्वभावगत परमार्थी होते हैं। उन्हें समझने में कई बार गलतफहमी भी हो सकती है। उनका परमार्थ आपको स्वार्थ भी लग सकता है। बुद्ध पुरुष कभी किसी को नजदीक बुलाए तो जो दूर हैं, उन्हें गलतफहमी हो सकती है कि हमें नहीं बुलाया। जरूर उससे कोई स्वार्थ होगा।
लेकिन जो स्वभाव से परमार्थी होता है, वह दूरदृष्टि वाला होता है। जो दूर हैं, उन्हें ज्यादा करीब से देखता है। गौतम बुद्ध के नजदीक आनंद रहते थे, मगर बुद्ध की नजर हमेशा दूर रहने वाले महाकश्यप पर रहती थी। हम सिर्फ अपना हित सोचते हैं, जबकि स्वभावगत परमार्थी हमारा परमहित सोच रहा होता है। मन, वचन व कर्म से परमार्थ करना उसका सहज स्वभाव होता है। परमार्थ सत्य, प्रेम और करुणा का विस्तार है। किसी की पीड़ा को
सुनना राम कथा सुनने जैसा परमार्थ है। भले ही इस कथा में राम वन को नहीं गए मगर बूढ़ी मां को अकेले छोड़ कर अगर बेटा अपनी पत्नी के साथ बाहर चला गया है और मां आपको अपनी पीड़ा बता रही है तो समझना कि तुलसी नई कथा सुना रहे हैं। सत्य, प्रेम और करुणा बीज हैं और उनका वटवृक्ष परमार्थ है।