संत रविदास ने कहा है इन पांच शत्रुओं से सदैव दूर रहें
शरीर तो भौतिक वस्तु है, उसे तो एक न एक दिन नष्ट हो ही जाना है। इसलिए हमें इस पर अभिमान न कर अपने अंतस को निखारना चाहिए।
संत रविदास जयंती पर विशेष अध्यात्म की राह के सबसे बड़े बाधक काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और ईष्र्या से जैसे दुर्गुणों से हमेशा दूर रहने वाले संत रविदास ने आम जनों को भी इन सभी से दूर रहने का पाठ पढ़ाया। 'काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे/ इन पंचन मेरो मनु जू बिगारिओ।' अर्थात काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और ईष्र्या मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं, जो मनुष्य के चरित्र व आचरण दोनों को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं। इसलिए इनसे हमेशा दूर ही रहना चाहिए। संत रविदास ने अपना जीवन इन पांच शत्रुओं से सदैव दूर रखा और लोगों को भी इनसे दूर रहने की प्रेरणा दी।
कहते हैं कि एक बार एक साधु उनके पास गया। उनके विनम्र स्वभाव व भगवद् भक्ति से प्रसन्न होकर उसने उनकी दरिद्रता मिटाने की मंशा से उन्हें एक पारस पत्थर देकर कहा है कि इसके स्पर्श से लोहा सोने में बदल जाता है। कुछ समय बाद वह साधु पुन: उनके पास लौटा, तो उनको पूर्ववत गरीबी की अवस्था में देखकर उसने हैरानी से पारस पत्थर के बारे में पूछा। इस पर रविदास जी ने उत्तर दिया कि वह उसी जगह रखा है, जहां आप रख कर गए थे। जरा विचार कीजिए! एक ओर निर्लिप्तता की ऐसी उत्कृष्ट स्थिति और दूसरी ओर आज का हमारा समाज जो लोभ, मोह के दलदल में धंसता ही जा रहा है। भ्रष्टाचार, अनाचार जैसी स्थितियां समाज में चहुं ओर व्याप्त हैं।
मनुष्य की लोभी प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा- 'माटी को पुतरा कैसे नचतु है/ देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरत है/ जब कछु पावै तब गरबु करत है/ माइआ गई तब रोवनु लगत है।' शरीर यानी माटी का यह पुतला नाचता-दौड़ता फिरता रहता है। कुछ मिल जाता है, तो वह गर्वीला हो जाता है और माया खत्म होते ही रोने लगता है। उनका कहना है कि शरीर तो भौतिक वस्तु है, उसे तो एक न एक दिन नष्ट हो ही जाना है। इसलिए हमें इस पर अभिमान न कर अपने अंतस को निखारना चाहिए। संसार भौतिक वस्तुओं पर अहंकार करने की तो कोई वजह ही नहीं है। संत रविदास का मानना था कि मनुष्य ईश्र्वर का अंश है, जिसका हृदय शुद्ध है, वह स्वयं ईश्र्वररूप है, लेकिन सच्ची ईश्वर भक्ति बड़े भाग्य से मिलती है। उनके जीवन से जुड़ी 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' वाली सुप्रसिद्ध उक्ति उनकी इसी विचारधारा को पुष्ट करती है।
कहा जाता है कि एक बार एक पंडितजी गंगा Fान के लिए जाने से पहले उनके पास जूते खरीदने आए। बातों-बातों में गंगा पूजन की बात निकल चली। उन्होंने पंडित महोदय को बिना दाम लिए ही जूते दे दिए और निवेदन किया कि उनकी एक सुपारी गंगा मैया को भेंट कर दें। इस महान संत की निश्छल भक्ति इतनी गहरी थी कि जब पंडित जी ने उनकी सुपारी गंगा मैया को भेंट की, तो गंगा मैया ने स्वयं प्रकट होकर उसे ग्रहण कर लिया। उनका कहना था कि श्रेष्ठ समाज की स्थापना के लिए मनुष्य का चित्त विकारों से मुक्त होना जरूरी है, अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सदैव सफल रहता है। वे सुंदर उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस तरह विशाल हाथी शक्कर के कणों को नहीं चुन पाता, लेकिन छोटी-सी चींटी उन कणों को सहजता से चुन लेती है, उसी तरह अभिमान त्याग कर विनम्र आचरण करने वाला मनुष्य सहज ही ईश कृपा पा लेता है। इस मानवतावादी संत व अप्रतिम समाज सुधारक को आजकल के तथाकथित समाज सुधारकों की भांति प्रचार-प्रसार की लालसा छू तक न सकी थी। उन्होंने समाज की उन्नति के लिए श्रम व विद्या पर बहुत बल दिया था। वे मानते थे कि जिस समाज में अविद्या और अज्ञानता है, उस समाज का उत्थान कभी नहीं हो सकता। इसलिए सभी मानवों को विद्या अर्जन करनी चाहिए। संत रैदास के समय में समाज में आर्थिक विषमता काफी बढ़ी हुई थी। इस समस्या के निवारण के लिए उन्होंने जिस तरह श्रम को महत्व देकर आत्मनिर्भरता की बात कही, वह उनकी दूरदर्शी दृष्टि का परिचायक है। गरीबी, बेकारी और बदहाली से मुक्ति के लिए उनका श्रम व स्वावलंबन का दर्शन आज भी उतना ही कारगर है। इस महान आध्यात्मिक संत ने आडंबरों पर करारा प्रहार कर ईशभक्ति का नया मार्ग सुझाया। समाज को पोंगापंथियों से सावधान रहने का संदेश दिया और वाह्य आडंबर, ढकोसला व रूढि़यों आदि का खंडन कर एक नई वैज्ञानिक विचारधारा का निर्धारण किया, जिससे हिंदू व मुस्लिम संस्कृति के मध्य की विशाल खाई को पाटने में काफी सहायता मिली। उनकी अमृत वाणी ने भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में भावनात्मक एकता स्थापित करने में अमूल्य योगदान दिया। करुणा, मैत्री, प्रज्ञा, चेतना एवं प्रखर वैचारिकता पर आधारित इस महान संत की वाणी सदैव देश के दीनहीन दलित-शोषितों के उद्धार के लिए मुखर रही। वे जीवनपर्यत भेदभाव का समूल समाप्त करने के लिए प्रयासरत रहे। उनका दर्शन था कि बुद्धि, विचार, विवेक के बिना सभी मनुष्य अंधे हैं। क्रांतिकारी रविदास कहते हैं कि सिर मुंडाने, मूर्ति पूजने, भूखे-प्यासे रहकर कठिन तपस्या करने व योग एवं वैराग्य के पथ पर चलकर इच्छाओं का दमन कर ईश्र्वर प्राप्ति नहीं होती। यही बात तथागत बुद्ध भी अपनी 'धम्मदेशना' में कहते हैं कि नंगे बदन रहने, जटा रखने, तन पर राख -मिट्टी लपेटने, कठिन व्रत-उपवास करने से न माया मोह व तृष्णा मिटती है न चित्त शुद्धि होती है।
इस तरह संत रविदास तथागत बुद्ध की बात को बताते हुए देश व समाज में समाजिक समरसता स्थापित करते दिखते हैं। वे कहते हैं कि जिसका चित्त राग द्वेष आदि से निरपेक्ष, विरत व स्थिर है। उसके लिए कहीं कोई भय नहीं। संत शिरोमणि कहते हैं, 'रे मन तू अमृत देश को चल जहां न मौत है न शोक है और न कोई क्लेश। हे निरंजन निर्विकार मैं तुम्हारा जन हूं। लोक और वेद का खंडन कर तुम्हारी शरण में आया हूं। 'संत रैदास अपने समय से बहुत आगे थे। अपनी क्रांतिकारी वैचारिक अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तथा युगबोध की मार्मिक अभिव्यक्ति के कारण उनका धर्म- दर्शन लगभग 600 वर्ष बाद आज भी पूर्ण प्रासंगिक हैं। बॉक्स चरण छो गंगापंजाब में होशियारपुर के पास खुरालगढ़ नामक एक स्थान है। 1515 में संत रविदास यहां आए थे। कहा जाता है कि एक दिन जब वे इस स्थान पर उपदेश दे रहे थे, तो वहां जमा लोगों ने उन्हें इलाके में पानी की समस्या के बारे में बताया। उस सभा में राज्य का राजा बैन सिंह भी मौजूद था। उसने भी संत श्री से पानी की समस्या के निवारण की गुहार लगाई। तब संत रविदास जी ने उस स्थल से ढाई किलोमीटर नीचे की ओर जाकर एक स्थान पर अपने पैर के अंगूठे से एक पत्थर को हटाया, तो उसके नीचे से जल की धारा बह निकली। संत रविदास ने राजा से कहा कि तुम जितनी दूर इस गंगा को ले जा सको, ले जाओ। यह तुम्हारे पीछे-पीछे आएगी बस पीछे मुड़कर मत देखना। राजा बैन सिंह चढ़ाई की ओर चल दिए, लेकिन करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद राजा ने पीछे मुड़कर देखा, तो वह धारा वहीं रुक गई। आज भी खुरालगढ़ में यह जल स्त्रोत मौजूद है। आज इस स्थान पर भव्य गुरुद्वारा बना हुआ है। यहां हर वर्ष संत रविदास जयंती पर भव्य शोभायात्रा निकलती है, जो उनके जन्म स्थान काशी में संपन्न होती है।