तंत्र-मंत्र के साधक अपनी सिद्धि के लिए इनकी आराधना करेंगे
शाकुम्भरी देवी माता दुर्गा के 51 शक्तिपीठो में से एक है। कहते हैं कि शाकुंभरी देवी की उपासना करने वालो के घर शाक यानि कि भोजन से भरे रहते हैं।
धर्म ग्रंथों के अनुसार, पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्र का पर्व प्रारंभ होता है, जो पौष मास की पूर्णिमा तक मनाया जाता है। पूर्णिमा तिथि पर माता शाकंभरी की जयंती मनाई जाती है। इस बार शाकंभरी नवरात्र का प्रारंभ 6 जनवरी, शुक्रवार को हो रहा है। नवरात्र समाप्त होने पर पौष मास की पूर्णिमा (12 जनवरी, गुरुवार) को शाकंभरी जयंती का पर्व मनाया जाएगा। इस पर्व के दौरान तंत्र-मंत्र के साधक अपनी सिद्धि के लिए वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे।
तंत्र-मंत्र के साधकों को अपनी सिद्धि के लिए खास माने जाने वाली शाकंभरी नवरात्रि की शुरुआत 6 जनवरी, से । इन दिनों साधक वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे। मां शाकंभरी ने अपने शरीर से उत्पन्न शाक-सब्जियों, फल-मूल आदि से संसार का भरण-पोषण किया था। इसी कारण माता ‘शाकंभरी’ नाम से विख्यात हुईं। वैसे तो वर्ष भर में चार नवरात्रि मानी गई है, आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में शारदीय नवरात्रि, चैत्र शुक्ल पक्ष में आने वाली चैत्र नवरात्रि, तृतीय और चतुर्थ नवरात्रि माघ और आषाढ़ माह में मनाई जाती है। देशभर में मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठ हैं। पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय माताजी के नाम से स्थित है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और तीसरा स्थान उत्तरप्रदेश के मेरठ के पास सहारनपुर में 40 किलोमीटर की दूर पर स्थित है। शाकंभरी माताजी का प्रमुख स्थल अरावली पर्वत के मध्य सीकर जिले में सकराय माताजी के नाम से विश्वविख्यात हो चुका है। तंत्र-मंत्र के जानकारों की नजर में इस नवरात्रि को तंत्र-मंत्र की साधना के लिए अतिउपयुक्त माना गया है। धर्म ग्रंथों के अनुसार पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्र का पर्व प्रारंभ होता है, जो पौष मास की पूर्णिमा तक मनाया जाता है। पूर्णिमा तिथि पर माता शाकंभरी की जयंती मनाई जाती है। इस पर्व के दौरान तंत्र-मंत्र के साधक अपनी सिद्धि के लिए वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवी शाकंभरी आदिशक्ति दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका, भीमा, भ्रामरी, शाकंभरी प्रसिद्ध हैं।
शाकुम्भरी देवी माता दुर्गा के 51 शक्तिपीठो में से एक है । यह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में बेहट तहसील में स्थित है । माता के दर्शन से पहले यहां मान्यता है कि भूरा देव के दर्शन करने पडते है । श्री दुर्गासप्तशती पुस्तक में शाकुंभरी देवी का वर्णन आता है कि जब एक बार देवताओ और दानवो में युद्ध चल रहा था जिसमें दानवो की ओर से शुंभ ,निशुंभ, महिषासुर आदि बडे बडे राक्षस लड रहे थे तो देवता उनसे लडते लडते शिवालिक की पहाडियो में छुप छुपकर विचरण करने लगे और जब बात ना बनी तो नारद मुनि के कहने पर उन्होने देवी मां से मदद मांगी । इसी बीच भूरादेव अपने पांच साथियो के साथ मां की शरण में आया और देवताओ के साथ मिलकर लडने की आज्ञा मांगी । मां ने वरदान दिया और युद्ध होने लगा । राक्षसेा की ओर से रक्तबीज नाम का असुर आया जिसकी खून की एक बूंद गिरने पर एक और उसी के समान असुर पैदा हो जाता था । मां ने विकराल रूप धरकर और चक्र चलाकर इन सब दानवो को मार डाला । माता काली ने खप्पर से रक्तबीज का सिर काटकर उसका सारा खून पी लिया जिससे नये असुर पैदा नही हुए पर इस बीच शुंभ और निशुंभ ने भूरादेव के बाण मार दिया जिससे वो गिर पडा । युद्ध समाप्त होने के बाद माता ने भूरादेव को जीवित कर वरदान मांगने को कहा तो उन्होने हमेशा मां के चरणो की सेवा मांगी जिस पर माता ने वरदान दिया कि जो भी मेरे दर्शन करेगा उसे पहले भूरादेव के दर्शन करने होंगे तभी मेरी यात्रा पूरी होगी ।
शाकुंभरी देवी मंदिर की महत्ता क्या है । ये मंदिर शक्तिपीठ है और यहां सती का शीश यानि सिर गिरा था । मंदिर में अंदर मुख्य प्रतिमा शाकुंभरी देवी के दाईं ओर भीमा और भ्रामरी और बायीं ओर शताक्षी देवी प्रतिष्ठित हैं । शताक्षी देवी को शीतला देवी के नाम से भी संबोधित किया जाता है । कहते हैं कि शाकुंभरी देवी की उपासना करने वालो के घर शाक यानि कि भोजन से भरे रहते हैं शाकुंभरी देवी की कथा के अनुसार एक दैत्य जिसका नाम दुर्गम था उसने ब्रहमा जी से वरदान में चारो वेदो की प्राप्ति की और यह वर भी कि मुझसे युद्ध में कोई जीत ना सके वरदान पाकर वो निरंकुश हो गया तो सब देवता देवी की शरण में गये और उन्होने प्रार्थना की । ऋषियो और देवो को इस तरह दुखी देखकर देवी ने अपने नेत्रो में जल भर लिया । उस जल से हजारो धाराऐं बहने लगी जिनसे सम्पूर्ण वृक्ष और वनस्पतियां हरी भरी हो गई । एक सौ नेत्रो द्धारा प्रजा की ओर दयापूर्ण दृष्टि से देखने के कारण देवी का नाम शताक्षी प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रकार जब सारे संसार मे वर्षा नही हुई और अकाल पड गया तो उस समय शताक्षी देवी ने अपने शरीर से उत्पन्न शाको यानि साग सब्जी से संसार का पालन किया । इस कारण पृथ्वी पर शाकंभरी नाम से विख्यात हुई ।
दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है-
मंत्र-
शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।
अर्थात- देवी शाकंभरी का वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं। ये पद्मासना हैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है।
शाकम्भरी देवी दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका,भीमा, भ्रामरी, शताक्षी तथा शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। देश भर में मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठ हैं