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नवरात्र अंत:शुद्धि का महापर्व है

सर्दी और गर्मी की ऋतुओं का मिलन काल आश्विन और चैत्र मास में जिन दिनों आता है, वे नवरात्र कहलाते हैं। उन दिनों शरीर, मन और प्रकृति के विभिन्न घटकों में विशेष रूप से उल्लास भरा रहता है। वातावरण में विशिष्टता व्याप्त रहती है। शरीर दबे हुए रोगों को निकालने

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 23 Mar 2015 01:07 PM (IST)Updated: Mon, 23 Mar 2015 03:57 PM (IST)
नवरात्र अंत:शुद्धि का महापर्व है

सर्दी और गर्मी की ऋतुओं का मिलन काल आश्विन और चैत्र मास में जिन दिनों आता है, वे नवरात्र कहलाते हैं। उन दिनों शरीर, मन और प्रकृति के विभिन्न घटकों में विशेष रूप से उल्लास भरा रहता है। वातावरण में विशिष्टता व्याप्त रहती है। शरीर दबे हुए रोगों को निकालने का प्रयास करता है।

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इसीलिए इन दिनों रोग बढ़ जाते हैं। आयुर्वेद इस अवसर को शरीर शोधन के लिए विशेष उपयोगी मानता है। चैत्र नवरात्र में वसंत होता है। प्रकृति की शोभा देखते ही बनती है। वनस्पतियां नवीन पल्लव धारण करती हैं। प्रकृति का उल्लास अपना प्रभाव समूचे वातावरण पर डालता है। जीवधारियों के मन विशेष प्रकार की मादकता से भर जाते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से मनीषियों ने इन दिनों आत्मा के ऋतुमति होने का आलंकारिक संकेत किया है। उनके अनुसार, इन दिनों वह अपने प्रियतम परमात्मा से मिलने के लिए विशेष रूप से आतुर होती है। नौ दिन का व्रत-उपवास प्राकृतिक उपचार के समतुल्य माना जा सकता है। इसमें प्रायश्चित के निष्कासन और पवित्रता की अवधारणा दोनों भाव हैं। चैत्र की नवरात्रि के साथ रामजन्म एवं रामराज्य की स्थापना का इतिहास है। इस कारण इस नवरात्र का महत्त्व सर्वाधिक है।

नवरात्र व्रत का मूल उद्देश्य है इंद्रियों का संयम और आध्यात्मिक शक्ति का संचय। वस्तुत: नवरात्र अंत:शुद्धि का महापर्व है। आज वातावरण में चारों तरफ विचारों का प्रदूषण है। ऐसी स्थिति में नवरात्र का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। नवरात्र के समय प्रकृति में एक विशिष्ट ऊर्जा होती है, जिसको आत्मसात कर लेने पर व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है। व्रत में हम कई चीजों से परहेज करते हैं और कई वस्तुओं को अपनाते हैं। आयुर्वेद की धारणा है कि पाचन क्रिया की खराबी से ही शारीरिक रोग होते हैं। क्योंकि हमारे खाने के साथ जहरीले तत्व भी हमारे शरीर में जाते हैं। आयुर्वेद में माना गया है कि व्रत से पाचन प्रणाली ठीक होती है। व्रत उपवास का प्रयोजन भी यह है कि हम अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपने मन-मस्तिष्क को केेंद्रित कर सकेें। मनोविज्ञान यह भी कहता है कि कोई भी व्यक्ति व्रत-उपवास एक शुद्ध भावना के साथ रखता है। उस समय हमारी सोच सकारात्मक रहती है, जिसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है, जिससे हम अपने भीतर नई ऊर्जा महसूस करते हैं। आयुर्वेद में शारीरिक शुद्धि के लिए पंचकर्म का प्रावधान भी नवरात्र में करने का है।

इस समय प्रकृति अपना स्वरूप बदलती है। वातावरण में एक अलग-सी आभा देखने को मिलती है। पतझड़ के बाद नवीन जीवन की शुरुआत, नई पत्तियों और हरियाली की शुरुआत होती है। संपूर्ण सृष्टि में एक नई ऊर्जा होती है। इस ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग करने के लिए हमें व्रतों का संयम-नियम बहुत लाभ पहुंचाता है। नवरात्र में कृषि-संस्कृति को भी सम्मान दिया गया है। मान्यता है कि सृष्टि की शुरुआत में पहली फसल जौ ही थी। इसलिए इसे हम प्रकृति (मां शक्ति) को समर्पित करते हैं।

हमारी संस्कृति में देवी को ऊर्जा का श्चोत माना गया है। अपने भीतर की ऊर्जा जगाना ही देवी उपासना का मुख्य प्रयोजन है। दुर्गा पूजा और नवरात्र मानसिक-शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक हैं। इन सबके मूल में है मनुष्य का प्रकृति से तालमेल, जो जीवन को नई सार्थकता प्रदान करता है।


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