नंदा राजजात: गीत, रीत और प्रीत की त्रिवेणी
बिल्कुल बरसाने की अल्हड़ता लिए है चांदपुरगढ़ की लाडली। तभी तो वह सबके हृदय में अधिकारपूर्वक वास करती है। उसकी हल्की सी मुस्कान पर सारे चेहरे खिलखिला उठते हैं और उदासी में आत्मा तक क्रंदन करने लगती है। तभी तो लोकगीतों व जागरों में भी इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति हुई है। नंदा की
देहरादून, [दिनेश कुकरेती]। बिल्कुल बरसाने की अल्हड़ता लिए है चांदपुरगढ़ की लाडली। तभी तो वह सबके हृदय में अधिकारपूर्वक वास करती है। उसकी हल्की सी मुस्कान पर सारे चेहरे खिलखिला उठते हैं और उदासी में आत्मा तक क्रंदन करने लगती है। तभी तो लोकगीतों व जागरों में भी इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति हुई है। नंदा की उत्पत्ति लोक से हुई, इसलिए वह लोक में समाकर लोक की देवी बन गई। इसके बावजूद हम उसे पूजनीय, आदरणीय जैसे संबोधनों से अलंकृत नहीं करते। हमारे लिए वह सिर्फ और सिर्फ स्नेह की प्रतिमूर्ति है, जिसे हम जी-भरकर दुलारना चाहते हैं, हृदय की गहराइयों में बसाना चाहते हैं। और..वह स्वयं भी तो शिव की अद्र्धागिनी होने के बावजूद लोक से मिलने को विकल रहती है। इसीलिए तो नंदा प्रकृति भी है और संस्कृति भी। यही सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि हमें नंदा के जागरों में देखने को मिलती है।
देखा जाए तो किसी भी क्षेत्र का रहन-सहन, खान-पान एवं वेश-भूषा वहां के सांस्कृतिक परिवेश का द्योतक होते हुए भी भौगोलिक परिस्थितियों पर निर्भर है। साहित्यकार डॉ. दिनेश चंद्र पुरोहित लिखते हैं कि गढ़वाल की विकट भौगोलिक स्थिति के दृष्टिगत यहां मोटा खाने और मोटा पहनने का चलन रहा है। नंदा जागरों के कई प्रसंगों में यहां के रहन-सहन, खानपान आदि का वर्णन मिलता है, जिसमें स्थानीय उत्पादों को प्रमुखता मिली है। अतिथि के आने पर भेड़ की ऊन से बनी कंबल बिछायी जाती है- 'य कौटी कामली या बिछौण लगायो'। बिनसर गौरी (नंदा) के लिए भूमि-स्पर्शी घाघरी एवं अंगिया बनाने और खाने के लिए बारह व्यंजन एवं शुद्ध दूध की खीर बनाने की बात करता है। नंदाष्टमी के दिन गौरा ससुराल जाने की तैयारी करती है। उसी के शब्दों में सुनिए- 'धौली जैसी फाट गौरा न स्यूंदाल गाड़ीले, कुऔ जैसी बाट गौरा न भ्यंटुली बांधिले' (गौरा ने मांग ऐसी सजाई है, जैसे धौली गंगा की फाट हो और चोटी कुएं के भीतर उतरते रास्ते जैसी लगती है)।
गौरा जब शिव से मायके जाने की आज्ञा मांगती है तो मायके में मिलने वाली वस्तुओं को भी गिनाती है- 'मेरा मैत होला स्वामी झालू की काखड़ी, मेरा मैत होला स्वामी बाड़ू की मुंगरी' (मेरे मायके में बेल खीरे और बाड़ मकई से लकदक हैं)। गौरा को ससुराल आए बारह बरस और छह महीने हो गए हैं उसकी अंगिया फटकर कुहनी तक आ गई है और घाघरी घुटनों तक। इस हृदय स्पर्शी पीड़ा का वह कुछ इस तरह वर्णन करती है- 'बारा ह्वै गा बरस छई ह्वै गा मासो, मेरी अंगुरी फटीगे क्वैन्यू माथी ऐगे, घाघरी फटीक घुन्यूं माथी ऐगे'।
स्वप्न में गौरा (नंदा) अपनी बड़ी बहन बलम्फा को देखती है, जो कन्नौज के राजा जसधवल (यशोधवल) से ब्याही गई थी। बलम्फा के वैभव को गौरा भी मन में सुख का अनुभव करती है। जागर में इसे इस तरह गाया जाता है-' ब्याली को सुपिना स्वामी, अनमन भांति, ब्याली को सुपिना देखि कन्नोज को राजा, कन्नोज को राज देखि आंख्यूं सुख होये, कन्नोज का राजा चलि पायूं सुख होये..'। डॉ.पुरोहित लिखते हैं कि नंदा के जागरों में गढ़वाल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के साथ ही लोकजीवन की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, कठिनाइयों आदि का यथातथ्य चित्रण हुआ है। सच कहें तो नंदा के जागर हिमालयी महाकुंभ के प्राणतत्व भी हैं और इस क्षेत्र के लाोक जीवन का दर्पण भी। तभी तो लोकगीत, गीत न होकर वेद की ऋचाएं बन गए और बेटी के खुदेड़ गीत जागर।
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