लिंग पुराण: यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है
'लिंग पुराण' शैव सम्प्रदाय का पुराण है। 'लिंग' का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके 'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है। इस पुराण में लिंग का अर्थ विस्तार से बताया गया है।
'लिंग पुराण' शैव सम्प्रदाय का पुराण है। 'लिंग' का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके 'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है। इस पुराण में लिंग का अर्थ विस्तार से बताया गया है। यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है-
'लिंग पुराण' का कथा भाग 'शिव पुराण' के समान ही है। शैव सिद्धान्तों का अत्यन्त सरल, सहज, व्यापक और विस्तृत वर्णन जैसा इस पुराण में किया गया है, वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं है। इस पुराण में कुल एक सौ तिरसठ अध्याय हैं। पूर्वार्द्ध में एक सौ आठ और उत्तरार्द्ध में पचपन अध्याय हैं। इसमें शिव के अव्यक्त ब्रह्मरूप का विवेचन करते हुए उनसे ही सृष्टि का उद्भव बताया गया है।
सृष्टि का प्रारम्भ
भारतीय वेदों , उपनिषदों तथा दर्शनों में सृष्टि का प्रारम्भ 'शब्द ब्रह्म' से माना जाता रहा है। उस ब्रह्म का न कोई आकार है और न कोई रूप। उसी 'शब्द ब्रह्म' का प्रतीक चिह्न साकार रूप में 'शिवलिंग' है। यह शिव अव्यक्त भी है और अनेक रूपों में प्रकट भी होता है।
भारतीय मनीषियों ने भगवान के तीन रूपों- 'व्यक्त', 'अव्यक्त' और 'व्यक्ताव्यक्त' का जगह-जगह उल्लेख किया है। 'लिंग पुराण' ने इसी भाव को शिव के तीन स्वरूपों में व्यक्त किया है-
अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार हुआ और उस शिव के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं।
सृष्टि
भाव यही है कि शिव अव्यक्त लिंग (बीज) के रूप में इस सृष्टि के पूर्व में स्थित हैं। वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होता है। जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ पाने के कारण 'नेति-नेति' कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। वस्तुत: अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति को अव्यक्त ब्रह्म (निर्गुण) की शिक्षा देना जब दुष्कर जान पड़ता है, तब व्यक्त मूर्ति की कल्पना की जाती है। शिवलिंग वही व्यक्त मूर्ति है। यह शिव का परिचय चिह्न है। 'लिंग पुराण' में लिंग का अर्थ ओंकार (ॐ) बताया गया है। इस पुराण में शिव के अट्ठाईस अवतारों का वर्णन है। उ
'लिंग पुराण' में जो उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सभी सार्वजनिक हित के हैं। सर्वप्रथम इस पुराण में सदाचार पर सर्वाधिक बल दिया गया है। भगवान शिव ऐसे लोगों से प्रसन्न होते हैं। जो संयमी, धार्मिक दयावान, तपस्वी, साधु, संन्यासी, सत्यवादी, वेदों और स्मृतियों के ज्ञाता तथा साम्प्रदायिक वैमनस्य से दूर धर्म में आस्था रखते हों। विद्या की साधना करने वाला ही साधु कहलाता है। कल्याणकारी कर्म ही धर्म है। सत्कर्म ही मनुष्य को साधारण से असाधारण बनाते हैं।
पौराणिक दृष्टि से 'लिंग पुराण' अनेक पुराणों से अधिक शिक्षाप्रद और सदुपदेश परक है। शिव तत्त्व की गम्भीर समीक्षा इसी पुराण में प्राप्त होती है। शिव ही पंचमुखी ब्रह्मा के रूप में प्रकट होते हैं। वे ही सृष्टि के नियन्ता और संहारक हैं। वस्तुत: शैव मत का प्रतिपादन करते हुए भी 'लिंग पुराण' ब्रह्म की एकता का सिद्धान्त प्रतिपादित करता है। सभी विद्धान इस तथ्य को स्वीकार भी करते हैं।