जानें, 11 नवंबर को क्यों होगा तुलसी संग शालिग्राम का विवाह
उनकी चिता की राख से एक पौधा निकला, जिसे विष्णु ने ‘तुलसी’ नाम दिया और कहा मेरा स्वरूप शालिग्राम कहलाएगा । मैं बिना तुलसी दल के कभी भी भोग स्वीकार नहीं करूँगा।
दीपावली के बाद आने वाली कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान एकादशी या भीष्म-पंचक एकादशी के रूप में मनाई जाती है। लोक-जन में इसके देवउठान एकादशी, देवउठनी ग्यारस तथा प्रबोधिनी एकादशी आदि अन्य नाम भी प्रचलन में हैं। पूरे भारत में इस दिन तुलसी-पूजन का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है तथा तुलसी-शालिग्राम का विवाह पूरे विधि-विधान से सम्पन्न कराया जाता है। इस विवाह के माध्यम से विष्णु भगवान का आह्वान किया जाता है। तुलसी-विवाह के पीछे की पौराणिक कथा का विस्तार से वर्णन इस प्रकार है :
प्राचीन काल में वृंदा नाम की एक लड़की थी, जो राक्षस कुल में उत्पन्न होने के बावजूद भगवान विष्णु की बड़ी भक्त थी। विष्णु के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा और प्रेम था तथा वह बड़े भक्ति-भाव से उनकी पूजा-अर्चना किया करती थी। बड़े होने पर उसका विवाह राक्षस कुल के ही दानव-राज ‘जलंधर’ से हो गया। वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी। उसके पतिव्रत धर्म तथा तप के कारण ही जलंधर का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता था।
एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ। जलंधर को युद्ध में भेजकर अपने पति की जीत की कामना से वृंदा ने व्रत का अनुष्ठान किया तथा तब तक व्रत ना छोड़ने का संकल्प लिया, जब तक जलंधर युद्ध से विजयी होकर वापस नहीं लौटते। इस व्रत के प्रभाव से कोई भी देवता जलंधर को हराने में सफ़ल नहीं हो सका। घबराकर वे सभी विष्णु जी की शरण में गये; परन्तु विष्णु जी ने असमर्थता व्यक्त करते हुये कहा कि ‘‘मैं अपनी परम-भक्त के साथ छल नहीं कर सकता।’’
देवताओं के ऐसा कहने पर कि अन्य कोई उपाय नहीं है, भगवान् उनकी मदद करने को तैयार हो गये। वे जलंधर का रूप धर कर जैसे ही वृंदा के महल में पहुँचे, वृंदा उन्हें देख कर खुशी से दौड़ी-२ आई और झुक कर उनके चरण छूने लगी। ऐसा करते ही उसका संकल्प टूट गया और जलंधर युद्ध में पराजित हो गया। देवताओं ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, जो सीधा वृंदा के महल में आकर गिरा। ये देख कर घबराई हुई वृंदा विष्णु भगवान से पूछने लगी, “मेरे पति तो मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं; फ़िर आप कौन हैं, जिसने मेरे साथ ऐसा छल किया है?’’
विष्णु भगवान को अपने असली रूप में आना पड़ा, परन्तु वे कुछ कह ना सके। वृंदा को सब समझते देर ना लगी, उसने क्रोधित होते हुये कहा, “मैं आपकी इतनी बड़ी भक्त थी, फ़िर भी आपने मेरे साथ पाषाणवत् व्यवहार किया। मैं आपको श्राप देती हूँ कि आप पाषाण-स्वरूप ही धारण करें।” वृंदा के ऐसा कहते ही भगवान तुरन्त ही पत्थर के हो गये। ये देख कर देवताओं में हाहाकार मच गया और लक्ष्मी जी दु:खी होकर प्रार्थना करने लगीं कि “मेरे पति को पहले जैसा कर दो।” वृंदा ने लक्ष्मी जी के कातर स्वर से द्रवित होकर विष्णु भगवान को पहले जैसा कर दिया और स्वयं अपने पति का सिर लेकर सती हो गईं।
उनकी चिता की राख से एक पौधा निकला, जिसे भगवान विष्णु ने ‘तुलसी’ नाम दिया; साथ ही ये भी कहा कि “मेरा एक स्वरूप पत्थर के रूप में शालिग्राम कहलाएगा तथा उसे तुलसी के साथ पूजा जाएगा और मैं बिना तुलसी दल के कभी भी भोग स्वीकार नहीं करूँगा।” तभी से कार्तिक मास में देवोत्थान एकादशी के दिन ‘तुलसी-शालिग्राम विवाह’ सम्पन्न किया जाता है। इस विवाह के पश्चात् सभी शुभ-कार्य जैसे; विवाह, उपनयन आदि प्रारम्भ हो जाते हैं।
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