हरिशयनी एकादशी: चेतना को जगाएं
भगवान विष्णु की योगनिद्रा हमें बताती है कि हम अपने प्रयासों से अपनी चेतना के स्तर को बढ़ा सकते हैं और अपने भीतर जागरूकता ला सकते हैं। हरिशयनी एकादशी (
भगवान विष्णु की योगनिद्रा हमें बताती है कि हम अपने प्रयासों से अपनी चेतना के स्तर को बढ़ा सकते हैं और अपने भीतर जागरूकता ला सकते हैं। हरिशयनी एकादशी (8 जुलाई) पर विशेष..
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्
विश्वाधारंगगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्।
लक्ष्मीकांतंकमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यम्
वंदे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
यन की मुद्रा में भगवान विष्णु की यह वंदना है, जिसका अर्थ है - जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयनरत हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान से प्राप्त होते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनयन भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।
दरअसल, यह मान्यता है कि आषाढ शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करने जाते हैं। इसी कारण इस एकादशी को देवशयनी या हरिशयनी एकादशी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, आषाढ शुक्ल एकादशी से भगवान श्रीहरि क्षीरसागर के अगाध जल में शेषशायी के रूप में शयन करते हैं और चार महीने पश्चात देवोत्थान (प्रबोधिनी) एकादशी को जाग्रत होते हैं। देवशयनी एकादशी से प्रबोधिनी एकादशी तक भगवान विष्णु के शयन काल का समय है। इस समय कोई भी नया कार्य निषिद्ध माना जाता है। वहींसाधु संतों के लिए बाहर न जाकर एक ही स्थान पर विश्राम कर जप-तप एवं योग-साधना करने का प्रावधान बताया जाता है।
मन में यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि संसार का पालन करने वाला चार माह के लिए शयन कैसे कर सकता है? अगर भगवान विष्णु सो जाते हैं, तो यह संपूर्ण संसार कैसे अपनी गति से चलता रहता है? दरअसल, इसका उत्तर खोजने की प्रक्रिया में हम इस प्रसंग पर ध्यान देंगे, तो पाएंगे कि यह मान्यता भी हमारे भीतर सद्बुद्धि जगाने के लिए निर्मित की गई है। वस्तुत: पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि संसार के पालनकत्र्ता विष्णु की यह सामान्य नींद नहीं होती। वे योगनिद्रा में जाते हैं। योगशास्त्र के अनुसार, योग निद्रा का अर्थ आध्यात्मिक नींद है। यह इस प्रकार की नींद होती है, जिसमें जागते हुए सोया जाता है। अचेतन में चेतना के प्रवाह या निद्रा में जागरण की अवस्था है यह। भगवान विष्णु की यह निद्रा हमें संदेश देती है कि हमें हर वक्त जागरूक रहना होगा, उस वक्त भी जब हम सो रहे हों। दूसरे, जब हमारा भीतरी जागरण हो जाता है, तब निद्रा भी प्रभावहीन हो जाती है। हम जागरूक होकर अपने अच्छे आचरण से जागरण की वह अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें अचेतन अवस्था में भी हमारी चेतना पूर्ण विकसित रहे।
योगनिद्रा का कार्य भी यही है। वह हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाती है। यह अवस्था प्राप्त करने के लिए हमें अपनी इंद्रियों एवं मन को एकाग्र करना होगा और आत्मचिंतन करना होगा। देव शयनी एकादशी हमें आत्मचिंतन एवं स्वाध्याय करने का अवसर प्रदान करती है। आत्मचिंतन एवं एकाग्रता लाने के लिए ही इस अवसर पर यह नियम बनाया गया है कि इन चार मास में कोई भी शुभ या महत्वपूर्ण कार्य न किया जाए और साधु, संत व विद्वान लोग बाहर न जाकर एक ही स्थान पर बैठकर अध्ययन, मनन और चिंतन व यज्ञ आदि करें।
ब्रहमांड पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति एकादशी के दिन उपवास रखकर श्रीहरि का पूजन करता है, जो संयम-नियम से रहता है, वह भगवान का प्रिय पात्र बन जाता है। आज के व्यस्त जीवन में उपवास और संयम-नियम का अधिक महत्व है। क्योंकि आयुर्वेद के अनुसार, उपवास शरीर और मन को स्वस्थ रखने में सकारात्मक भूमिका निभाता है। आज की जीवन-शैली में संयम-नियम से न रहने के कारण ही तमाम प्रकार की व्याधियों का सामना हमें करना पड़ता है। देवशयनी एकादशी हमें उपवास, संयम-नियम, आत्मचिंतन, मनन व स्वाध्याय का अवसर प्रदान करती है। ऐसा करने से हम शरीर के साथ-साथ अपने अंत:करण को भी विशुद्ध कर लेते हैं।