जानने से मिलता है ज्ञान
आम तौर पर हम किताबों या लोगों की बातें पढ़-सुनकर उनकी बातें मान लेते हैं। लेकिन सही ज्ञान हमें तब मिलता है, जब मानने के बजाय उन्हें खुद जानें। अपने अनुभवों से जानना ही असली ज्ञान है। विश्व दर्शन दिवस (20 नवंबर) के अवसर पर ओशो का चिंतन..
आम तौर पर हम किताबों या लोगों की बातें पढ़-सुनकर उनकी बातें मान लेते हैं। लेकिन सही ज्ञान हमें तब मिलता है, जब मानने के बजाय उन्हें खुद जानें। अपने अनुभवों से जानना ही असली ज्ञान है। विश्व दर्शन दिवस (20 नवंबर) के अवसर पर ओशो का चिंतन...
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्तिकम्
(कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन, जो इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है।)
इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं, जो आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है....। वे 'जानता हैÓ कहते हैं, 'हू नोज लाइक दिसÓ। वे यह नहीं कहते कि जो ऐसा मानता है, 'हू बिलीव्स लाइक दिसÓ। वे यह भी कह सकते थे कि जो पुरुष ऐसा मानता है कि न जन्म है, न मृत्यु है। तब तो हम सबको बहुत आसानी हो जाती, क्योंकि मानने से ज्यादा सरल कुछ है भी नहीं। मानने के लिए तो हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता। जानने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं है, क्योंकि जानने के लिए तो पूरी आत्मक्रांति से गुजरना पड़ता है।
इस 'जाननाÓ शब्द को ठीक से पहचान लेना जरूरी है, क्योंकि सारा धर्म 'जाननेÓ को छोड़कर 'माननेÓ के इर्द-गिर्द घूम रहा है। सारा धर्म, सारी पृथ्वी पर बहुत-बहुत नामों से जो धर्म प्रचलित है, वह सब मानने के आस-पास घूम रहा है। वह सारा धर्म कह रहा है, ऐसा मानो, मानोगे तो हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कहते है, जानना जरूरी है।
अब जानने का क्या मतलब? जानना भी दो तरह से हो सकता है। शास्त्र से कोई बात पढ़ ले, तो भी जान लेता है। अनुभव से कोई जाने, तो भी जान लेता है। क्या ये दोनों जानना एक ही अर्थ रखते हैं? शास्त्र से जानना तो बड़ा सरल है। लिखा है, पढ़ा और जान लिया। उसके लिए सिर्फ शिक्षित होना काफी है। पठित होना काफी है। उसके लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं। शास्त्र पढ़कर जो जानना है, वह जानना नहीं है, वह जानने का धोखा है। वह सिर्फ सूचना है। लेकिन सूचना से धोखे हो जाते हैं।
हम पढ़ लेते हैं कि आत्मा अजर है, अमर है, नहीं जन्मती, नहीं मरती। पढ़ लेते हैं, दोहरा लेते हैं। बार-बार दोहरा लेने से हम यह भूल जाते हैं कि जानते नहीं हैं, सिर्फ दोहरा रहे हैं। बार-बार दोहराने से, बात ही भूल जाती है कि जो हम कह रहे हैं, वह अपना जानना नहीं है।
मान लीजिए एक आदमी तैरने की कला पढ़ ले। जान ले उसका पूरा शास्त्र। चाहे तो तैरने पर बोल सके, तैरने पर लिख सके। चाहे तो किसी यूनिवर्सिटी से पीएचडी ले ले। वह तैरने का डॉक्टर हो जाए। लेकिन फिर भी उस आदमी को भूलकर भी नदी में धक्का मत देना। उसकी पीएचडी उसे तैरा न सकेगी। उसकी पीएचडी उसे और जल्दी डुबा देगी, क्योंकि वह काफी वजनी होती है। तैरने के संबंध में जानना, तैरना जानना नहीं है। सत्य के संबंध में जानना, सत्य जानना नहीं है। इस तरह जानना बिल्कुल बराबर है न जानने के। सत्य के संबंध में जानना, सत्य को न जानने के बराबर है।
कृष्ण के इस शब्द को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इस एक शब्द 'जाननेÓ के आस-पास ही वास्तविक धर्म का जन्म होता है, जबकि 'माननेÓ के आस-पास अप्रामाणिक धर्म का जन्म होता है। जानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम श्रद्धा है। और मानने से जो उपलब्ध होता है, उसका नाम विश्वास है, बिलीफ है। और जो लोग विश्वासी हैं, वे धार्मिक नहीं हैं, क्योंकि वे बिना जाने मान रहे हैं।
यह शब्द बहुत छोटा नहीं है। बड़े से बड़ा शब्द है। लेकिन भ्रांति इसके साथ निरंतर होती रहती है। हमारे पास एक शब्द है, वेद। वेद का अर्थ है, जानना। लेकिन हम तो वेद से मतलब लेते हैं, संहिता। वह वेद, जो किताब है। हमने कहा है, वेद अपौरुषेय है, इसका असली मतलब है कि जानना अपौरुषेय है। लेकिन लोग उसका मतलब लेते हैं कि वह जो किताब 'वेदÓ नाम की हमारे पास है, वह परमात्मा की लिखी हुई है। यह समझ का फेर है।
जबकि वेद किताब नहीं है, बल्कि जीवन है। लेकिन जानने को मानना बना लेना बड़ा आसान है। ज्ञान को किताब बना लेना बड़ा आसान है। जानने को शास्त्र पर निर्भर कर देना बहुत आसान है। क्योंकि तब बहुत कुछ करना नहीं पड़ता। जानने की जगह केवल स्मृति की जरूरत होती है। बस, याद कर लेना काफी होता है। तभी तो बहुत से लोग गीता याद कर रहे हैं।
मैं एक गांव में गया था। वहां उन्होंने एक गीता मंदिर बनाया है। मैंने पूछा, 'एक छोटी-सी गीता के लिए इतना बड़ा मंदिर?Ó उन्होंने कहा, 'कैसी बात करते हैं, अब भी जगह कम पड़ रही है।Ó मैंने कहा, 'क्या कर रहे हैं यहां आप?Ó उन्होंने कहा, 'अब तक हम यहां एक लाख गीता हाथ से लिखवाकर रखवा चुके हैं। अब जगह कम पड़ रही है। देश भर से हजारों लोग गीता लिख-लिखकर भेज रहे हैं।Ó मैंने कहा, 'लेकिन क्यों? इससे क्या होगा?Ó उन्होंने कहा,
'कोई आदमी दस बार लिख चुका, कोई पचास दफा लिख चुका, कोई सौ बार लिख चुका, लिखने से लोगों को ज्ञान होगा।Ó मैंने उनसे कहा, 'तब तो छापेखाने परम ज्ञानी हो गए होंगे। कंपोजीटरों के तो हमको चरण पकड़ लेना चाहिए, क्योंकि कितनी गीताएं छाप चुके वे। अब महात्माओं की तलाश प्रेस में करनी चाहिए, मुद्रणशाला में करनी चाहिए।Ó
यह पागलपन क्यों पैदा होता है? इसका कारण है। ऐसा लगता है, शास्त्र से जानना (ज्ञान) हो जाएगा। शास्त्र से सूचना मिल सकती है, इकमेंशन मिल सकती है, इशारे मिल सकते हैं, ज्ञान नहीं मिल सकता। ज्ञान तो जीवन के अनुभव से ही मिलेगा। और जब तक जीवन के अनुभव से यह पता न चल जाए कि हमारे भीतर कोई अजन्मा है, हमारे भीतर कोई नाशरहित है, हमारे भीतर कोई नित्य है, तब तक रुकना मत। तब तक कृष्ण कितना भी कहें, मान मत लेना। कृष्ण के कहने से इतना ही जानना कि जब इतने जोर से यह आदमी कह रहा है, तो इस बात को खुद खोजें, खुद पता लगाएं। जब इतने आश्वासन से यह आदमी भरा है, इतने सहज आश्वाासन से कह रहा है। इसने जाना है, जीया है कुछ, देखा है कुछ। हम भी देखें, हम भी जानें, हम भी उसे जीएं।
काश, यही शास्त्र इशारा बन जाएं और हम एक यात्रा पर निकल जाएं। लेकिन हम यह नहींकरते। हमारे शास्त्र मंदिर बन जाते हैं और हम कुछ करने के बजाय विश्राम को उपलब्ध हो जाते हैं।