देवोत्थान एकादशी व तुलसी विवाह आज
चार मास की योग-निद्रा के बाद भगवान विष्णु के जागने का अर्थ है कि चार मास में स्वाध्याय से अर्जित ऊर्जा को हम सक्रियता में बदल दें, ताकि हमारे सद्गुणों का प्रभाव हमारे कार्र्यों में दिखने लगे...
चार मास की योग-निद्रा के बाद भगवान विष्णु के जागने का अर्थ है कि चार मास में स्वाध्याय से अर्जित ऊर्जा को हम सक्रियता में बदल दें, ताकि हमारे सद्गुणों का प्रभाव हमारे कार्र्यों में दिखने लगे...
हमारी सांस्कृतिक जीवन-प्रणाली में प्रारंभ से ही मनुष्य के जीवन को व्यावहारिक, सरल और सद्गुण संपन्न बनाने का प्रयास रहा है। आचार्यों ने प्रकृति, मौसम से लेकर स्वास्थ्य तक के समस्त संदर्भों के अनुकूल संतुलित जीवन-पद्धति विकसित की। किसी समय वर्षा ऋतु के चार महीनों के दौरान जल-भराव से सुदूर क्षेत्रों में सामान्यत: आना-जाना कठिन रहा होगा और लोगों के पास अपेक्षाकृत कुछ अधिक समय उपलब्ध रहा होगा, तब ऋषियों ने चातुर्मास का प्रावधान किया होगा। इसके तहत यहां-वहां आना-जाना बंद हो जाता है और एक स्थान पर चार महीने जमकर आमजन के साथ सत्संंगति। ताकि मौसम की प्रतिकूलता से उत्पन्न रोगों व अन्य बाधाओं से बचाव और आम लोगों का वैचारिक उन्नयन संभव हो सके।
मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि (देवशयनी एकादशी) को भगवान विष्णु चार महीने के लिए योगनिद्रा पर चले जाते हैं। चातुर्मास का यह दौर वर्षा ऋतु में भौगोलिक प्रतिकूलता उत्पन्न हो जाने से आवागमन की दृष्टि से स्थगन-काल होता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को देवोत्थान
एकादशी मनाई जाती है। इसे विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कहीं 'देवउठनी एकादशीÓ, कहीं 'देवठानÓ, कहीं 'प्रबोधिनी एकादशीÓ कहीं 'देव प्रबोधिनीÓ तो कहीं 'देवोत्थान एकादशीÓ। यह वह समय है, जब वर्षा-ऋतु व्यतीत हो चुकी होती है। आसमान शांत और वर्षा का जल-जमाव प्राय: समाप्त हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार, देवोत्थान एकादशी के दिन ही भगवान विष्णु अपनी योग-निद्रा से जागते हैं। उनके शयन-काल के चार महीने जहां बाधा के दौर होते हैं, वहीं जागरण के बाद के आठ महीने चतुर्दिक सक्रियता का समय। इस सक्रियता का जगत-व्यवहार से लेकर मन के विहार-संसार तक का विस्तार है। इसीलिए देवोत्थान एकादशी को मानवीय सद्गुणों और उच्चतम जीवन-मूल्यों के आह्वान या उत्थान का संदेश देने वाला पर्व कहा जाना अधिक सटीक है। वह अवसर जब अपने भीतर झांका जाए और देवत्व के पर्याय मानवीय सद्गुणों को जगाया जाए।
आज के इस दौर में मनुष्य का जीवन-परिदृश्य अभूतपूर्व ढंग से विकसित हो चुका है। साधारण से साधारण व्यक्ति के हाथ में तकनीकी साधन उपलब्ध हैं। पूरा संसार उसके हाथ में एक स्क्रीन पर सिमट आया है। वह जब चाहे तब विराट पृथ्वी के किसी भी हिस्से पर मौजूद व्यक्ति से संवाद कर सकता है, उसे प्रत्यक्ष देखते हुए। यह विकास वस्तुत: मस्तिष्क की अनुसंधान व सृजन-क्षमता की उपलब्धि है। लेकिन मनुष्य के चंचल मन को कोई भी यंत्र नियंत्रित नहीं कर सकता। उसे तो सकारात्मक जीवन-मूल्य ही सजा-संवार सकते हैं। इसीलिए तमाम साधन-उपलब्धियों के बावजूद जीवन को सुंदर बनाने के लिए स्वयं के भीतर सद्गुणों को जगाने की नितांत आवश्यकता है। देवोत्थान एकादशी इसके लिए उचित अवसर है।
तुलसी-विवाह : देवोत्थान एकादशी पर तुलसी-विवाह के आयोजन के साथ पूजन-अर्चन की भी परंपरा है। यह परिणय तुलसी और शालिग्राम के बीच होता है। शालिग्राम भगवान विष्णु के प्रतीक माने जाते हैं, जबकि तुलसी लक्ष्मी का।
लक्ष्मी का आग्रह : शास्त्रों में कहा गया है कि एक बार जगन्माता लक्ष्मी ने क्षीर सागर में शेष-शय्या पर विराजे भगवान विष्णु के अनियमित जागरण-शयन पर प्रश्न उठाया। उन्होंने उनसे कहा कि उनके शताब्दियों तक जागे रह जाने और बाद में इसी तरह सदियों तक सोए रह जाने से सृष्टि की सारी क्रियाएं अनियंत्रित हो गई हैं। भगवान विष्णु ने इसी के बाद अपने शयन-जागरण का नियमन करते हुए चातुर्मास का प्रावधान किया।