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कबीर जयंती: कबीर ने स्वावलंबन की राह दिखाने के साथ मुक्ति का सही अर्थ भी बताया...

जन्म से लेकर युवावस्था तक संघर्ष की आंच में तपने वाले कबीर दास की 9 जून को जयंती है। ऐसे में जानें उनके स्वावलंबन के पाठ की वो आवाज जो आज भी काशी में गूंजती है...

By shweta.mishraEdited By: Published: Mon, 05 Jun 2017 01:29 PM (IST)Updated: Tue, 06 Jun 2017 08:59 AM (IST)
कबीर जयंती: कबीर ने स्वावलंबन की राह दिखाने के साथ मुक्ति का सही अर्थ भी बताया...
कबीर जयंती: कबीर ने स्वावलंबन की राह दिखाने के साथ मुक्ति का सही अर्थ भी बताया...

रमता जोगी बहता पानी

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मोक्ष नगरी काशी के कण-कण में भोले-शंकर की सुवास है, तो मन-मिजाज में कबीर के इकतारे की आवाज गूंजती हुई मालूम देती है। शास्त्र-पुराण की गवाही और विद्वानों के तर्क अपनी जगह हैं, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि निर्गुण राम के उपासक परिश्रम को ही साधना मानने वाले संत कबीर दास के दिए ज्ञान ने इस नगर को रमता जोगी बहता पानी-सा फक्कड़ बनाया। जिस समय कबीर दास का जन्म हुआ था, उस समय समाज अपनों की उपेक्षा और दूसरों की गुलामी से कराह रहा था। समाज की जरूरत को समझते हुए कबीर ने लोगों को स्वावलंबन की राह दिखाई। साथ ही, मोक्ष और मुक्ति के सही अर्थो से परिचित भी कराया।

साजो सामान मुक्ति का मार्ग

बेशक उस दौर में भी काशी में न तो विद्वानों की कमी थी और न ही साहित्य-शास्त्र की। जरूरत थी तो सिर्फ एक कुंजी तैयार करने की, जो जीवात्मा को तारने का सहज आधार बने। जन्म से लेकर युवावस्था तक संघर्ष की आंच में तपे कबीर ने एक सधे शोधार्थी की तरह तत्कालीन समाज और उसके राज का अध्ययन किया तथा उसका विवेचन-विश्लेषण करते हुए निष्कर्षों को जस का तस धर दिया। किसी भी व्यक्ति को कर्मकांड के कठिन मानदंड और पाखंड के जाल से निकालना आसान नहीं है, लेकिन उस श्रमसाधक संत ने राम (परमपिता परमेश्वर) को आम (सामान्य जन) व काम (रोजी- रोटी) से जोड़कर यह कमाल कर दिखाया। इसके लिए वह करघा-चरखा और कपड़ा बनाने के साजो सामान को मुक्ति का मार्ग बताते हैं।

स्वाभिमान जगाने का प्रयास

कबीर के पद और साखियों में सूत, करघा, चरखा, रहटा, लहुरिया, तागा-धागा जैसे शब्द आते हैं। कबीर ने चरखा-करघा के ताने-बाने के माध्यम से अध्यात्म के तमाम प्रतीकों को जीव, ब्रह्म और ईश्वर से जोड़ कर बिल्कुल अलग व नई राह लोगों को दिखाई। उस दौर पर गौर करें, तो यह सिर्फ उनका अपने लिए न होकर सर्व जन के मन में स्वाभिमान जगाने का प्रयास नजर आता है। ऐसा सिर्फ एहसास कराने से ही संभव हो पाता है। इसे प्रगाढ़ करने के लिए वह जुलाहे को ईश्वर कहते हुए संबोधित करते हैं, 'जो यह चरखा लखि परै, ताको आवागमन न होय..' से चरखे का गुणगान करते नहीं अघाते हैं। श्रम-अध्यात्म के रंग की मस्ती में आकर वह 'हरि मोर पीऊ मैं राम की बहुरिया..चरखा नहीं ये मुक्ति कै दाता।' भी गाते हैं।


सहेजने-संवारने की जरूरत

दरअसल, धर्मभीरु समाज को लीक से हटाना इतना भी आसान नहीं। ऐसे में 'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ..' और 'माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर' के जरिए संदेश देते हैं तो 'ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया..' के जरिए मनुष्य के दैहिक और जैविक स्वरूप की अपने व्याख्या भी कर जाते हैं। यह बात और है कि धर्म व्यवस्था और समाज व्यवस्था के खिलाफ सार्थक जंग की शुरुआत करने वाले भक्ति, ज्ञान व कर्म के संदेशवाहक कबीर-चौरा को उनके मान अनुसार सहेजने-संवारने की जरूरत है। लहरतारा को उनकी प्राकट्य स्थली माना जाता है। इस धरोहर को संरक्षित करने की भी दरकार है।

वाराणसी से प्रमोद यादव 


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