शास्त्रों से परे धर्म
धर्म के नाम पर झगड़े इसलिए होते हैं, क्योंकि झगड़ने वाले धर्म को जानते ही नहींऔर वे धार्मिक ग्रंथों की बातों में उलझे रहते हैं। धर्म को समझने के लिए ग्रंथों की नहीं, बल्कि स्वयं अनुभव करने की आवश्यकता है। एक बार भारत में विभिन्न संप्रदायों के प्रतिनिधि एकत्र हुए और विवाद क
धर्म के नाम पर झगड़े इसलिए होते हैं, क्योंकि झगड़ने वाले धर्म को जानते ही नहींऔर वे धार्मिक ग्रंथों की बातों में उलझे रहते हैं। धर्म को समझने के लिए ग्रंथों की नहीं, बल्कि स्वयं अनुभव करने की आवश्यकता है।
एक बार भारत में विभिन्न संप्रदायों के प्रतिनिधि एकत्र हुए और विवाद करने लगे। एक ने कहा - शिव ही एकमात्र ईश्वर। दूसरा बोल उठा - एकमात्र ईश्वर तो विष्णु हैं। इस प्रकार उनके विवादों का कोई अंत न था। इतने में वहां से एक ऋषि जा रहे थे। विवाद करने वालों ने उन्हें निर्णय करने के लिए बुलाया। ऋषि वहां गए और उन्होंने शिव के ही सबसे बड़े ईश्वर होने का दावा करने वाले व्यक्ति से पूछा - क्या तुमने शिव को देखा है? क्या उनसे तुम्हारा परिचय है? यदि ऐसा नहीं है तो तुम कैसे जानते हो कि वे ही सबसे बड़े ईश्वर हैं? तत्पश्चात उन्होंने विष्णु उपासक की ओर देखकर उससे भी यही प्रश्न किया - क्या तुमने विष्णु को देखा है? उन्होंने बारी-बारी से प्रत्येक से प्रश्न किए। तब पता लगा कि उनमें से कोई भी ईश्वर के विषय में कुछ भी नहीं जानता था। यही कारण था कि वे झगड़ा कर रहे थे। यदि उन्हें यथार्थ ज्ञान होता, तो वे बहस न करते। पानी भरते समय खाली घड़ा आवाज करता है, लेकिन जब घड़ा भर जाता है, तब आवाज बंद हो जाती है। अत: इन संप्रदायों में बहस और झगड़ों का होना ही यह सिद्ध करता है कि ये लोग धर्म के बारे में कुछ भी नहीं जानते। उनके लिए तो धर्म का अर्थ है निरर्थक शब्दराशि, जो शास्त्रों व पुस्तकों में भरी है।
अधिकांश लोग नास्तिक होते हैं। मुझे इस बात की खुशी है कि पश्चिमी दुनिया में नास्तिकों का एक और दल उत्पन्न हुआ है, जो जड़वादी है। ये जड़वादी निष्कपट नास्तिक हैं, जबकि धार्मिक नास्तिक लोग कपटी होते हैं। वे धर्म के लिए लड़ते हैं, पर उन्हें धर्म की आंकांक्षा नहीं है। वे धर्म का साक्षात्कार करने का प्रयत्न नहीं करते। वे धर्म को समझने की कोशिश नहीं करते। ऐसे धार्मिक नास्तिकों से जड़वादी नास्तिक अच्छे हैं।
किसी संप्रदाय विशेष में जन्म लेना बहुत अच्छा है, पर उसी में मर जाना बहुत बुरा है। अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए तो किसी संप्रदाय में जन्म लेना और उसकी शिक्षा ग्रहण करना बहुत अच्छा है, क्योंकि उससे सद्गुणों का विकास होता है। पर अधिकांश संख्या ऐसे लोगों की होती है, जो उसी छोटे से संप्रदाय में सीमित रह जाते हैं। न वे उससे बाहर निकलते हैं, न उनकी उन्नति होती है। कोई मनुष्य कहता है कि ये सब मार्ग की सीढि़यां हैं, जिनके जरिये वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, लेकिन बूढ़ा होने पर भी वह आगे की सीढ़ी पर पैर नहीं रखता।
मेरे देश में कुछ ऐसे संप्रदाय हैं, जिनका विश्वास है कि ईश्वर अवतार लेकर मनुष्य बनता है, पर ईश्वर को अवतारी पुरुष बनकर भी वेदों (प्राचीन पुस्तकों) के अनुसार ही चलना चाहिए। बौद्धों के अतिरिक्त कुछ संप्रदाय बुद्ध की पूजा करते हैं, पर वे उनके उपदेशों को नहीं मानते। वे कारण बताते हैं कि उन उपदेशों ने वेद को स्वीकार नहीं किया है। धर्मग्रंथ के नाम की आड़ में कितनी ही झूठी बातें खप सकती हैं। भारत में यदि मैं किसी नई बात की शिक्षा देना चाहूं और उसे केवल अपनी ही समझ की प्रामाणिकता हूं, तो मेरी कोई नहीं सुनेगा। पर यदि मैं वेदों से कुछ ऋचाएं निकालकर उनकी तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करूं और उनका अत्यंत असंभव अर्थ भी निकालूं, मैं अपने निजी विचारों को ही वेदों का तात्पर्य कहकर जाहिर करूं, तो सभी झुंड के झुंड मेरे पीछे फिरेंगे। वे नासमझ ऐसी कोई बात सीखना ही नहीं चाहते, जो वेदों या बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों में न हो।
यह ज्ञान-तंतुओं से संबंध रखने वाली बात है। कोई भी नई और अद्भुत बात सुनते ही तुम चौंक उठते हो। यह मनुष्य की प्रकृति में है। विचारों के संबंध में यह और भी अधिक होता है। मन कुछ लीकों में ही दौड़ता है। नए विचारों के ग्रहण करने में अत्यधिक प्रयास करना पड़ता है। अत: ऐसे नए विचारों को पुरानी लीक के पास ही रखना पड़ता है और तब धीरे-धीरे हम उन्हें ग्रहण कर लेते हैं।
यह कोशिश तो अच्छी है, पर नीति बुरी है। वेदों में एक वाक्य है - सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम अर्थात 'केवल सत का ही अस्तित्व था। हे सोम्य, आदि में और कुछ नहीं था।' इस वाक्य के 'सत' शब्द के अनेक अर्थ लगाए जाते हैं। परमाणुवादी कहते हैं कि सत का अर्थ परमाणु है, इन्हीं परमाणुओं से सृष्टि का निर्माण हुआ। प्रकृतिवादी कहते हैं कि सत का अर्थ प्रकृति है, जिससे सभी चीजों की उत्पत्ति हुई। शून्यवादी कहते हैं कि सत का अर्थ शून्य है। आस्तिक कहते हैं सत ईश्वर है, वहीं अद्वैतवादी के मत से उसका अर्थ है पूर्ण सत्य ब्रह्म। ग्रंथ पूजा में ये ही दोष हैं।
मेरे मत से तो ग्रंथों से लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक हुई है। ये पुस्तकें कई भ्रमात्मक सिद्धांतों के लिए उत्तरदायी हैं। भिन्न-भिन्न मत पुस्तकों से ही निकलते हैं और पुस्तकों पर ही दुनिया के धार्मिक अत्याचारों और क˜रता की जिम्मेदारी है। आधुनिक काल में ये ग्रंथ सर्वत्र मिथ्यावादियों को उत्पन्न कर रहे हैं।
धर्मग्रंथों में हमारा अंधविश्वास जितना ही कम हो, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। हमने स्वयं क्या अनुभव किया, यही महत्वपूर्ण सवाल है। ईसा, बुद्ध या मूसा ने जो अनुभव किया, उससे हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए, जब तक कि हम भी अपने लिए वही अनुभव न प्राप्त कर लें। यदि हम एक कमरे में बंद हो जाएं और मूसा ने जो खाया, उसका विचार करें, तो उससे हमारी क्षुधा शांत नहीं हो सकती। उसी प्रकार बुद्ध के जो विचार थे, उनसे हमारी मुक्ति नहीं हो सकती।
कभी-कभी मैं सोचता हूं कि उन आचार्र्यो के विचार तभी ठीक हैं, जब वे मेरे विचारों से सहमत होते हैं। स्वतंत्रता पूर्वक विचार करने में मेरा विश्वास है। इन आचार्र्यो से बिल्कुल स्वतंत्र रहकर विचार करो। उनका आदर करो, पर धर्म की खोज स्वतंत्र रहकर करो। मुझे अपने लिए प्रकाश स्वयं ही खोज निकालना होगा, जैसे कि उन्होंने अपने लिए खोज निकाला था। उन्हें जिस प्रकाश की प्राप्ति हुई, उससे हमारा संतोष कदापि न होगा। तुम्हें स्वयं बाइबिल बनना पड़ेगा, उसका अनुसरण करना नहीं। हां, केवल रास्ते के दीपक के समान, पथ प्रदर्शक, साइन बोर्ड या किसी निशान के समान उसका आदर अवश्य करना होगा। धर्मग्रंथों की उपयोगिता बस इतनी ही है।