मोहक हो हमारा मन
तन की सुंदरता एक झूठ है और मन की सुंदरता सच। जब तक मन से विकारों का त्याग नहीं होगा, तब तक मन का सुंदर होना असंभव है। तो क्यों न हम मन को ही बना लें मोहक...
तन की सुंदरता एक झूठ है और मन की सुंदरता सच। जब तक मन से विकारों का त्याग नहीं होगा, तब तक मन का सुंदर होना असंभव है। तो क्यों न हम मन को ही बना लें मोहक...
जब लग मनहि विकारा, तब लगि नहिं छूटे संसारा। जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।।
त कबीर कहते हैं कि जब तक आपके मन में विकार है, तब तक सांसारिक प्रपंच से छुटकारा पाना संभव नहीं है। विकारों से मुक्ति के बाद ही भक्ति में मन रमता है और झूठे विकारों से मन भी हटने लगता है। वे कहते हैं कि मन निर्मल होने पर ही आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा।
छुटकारा आसक्ति से कबीर के कहे ये शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। आज की जीवन पद्धति वैसे ही तनावों से भरी है और इसमें गुस्सा, ईष्र्या, दूसरों में कमियां निकालने की आदत, जैसे मन के विकारों से मुक्ति ही प्राथमिकता है।
हमें कुछ पाने की होड़ छोड़कर उन
विकारों का त्याग करना होगा, जो दुख
का कारण बनते हैं। कबीर जहां मन
को निर्मल करने के लिए कहते हैं,
वहीं सांख्य दर्शन जैसे हमारे प्राचीन
ग्रंथ भी इच्छा, आसक्ति से मुक्त होने
की बात कहते हैं। बाज से शिक्षा लेने
का सुझाव देते हुए इसमें कहा गया
है, च्भोग और त्याग की शिक्षा बाज से
लेनी चाहिए। बाज पक्षी से जब कोई
उसके हक का मांस छीन लेता है तो
वह मरणांतक दुख का अनुभव करता
है, किंतु जब वह अपनी इच्छा से ही
अन्य पक्षियों के लिए अपने हिस्से
का मांस, जैसा कि उसका स्वभाव
होता है, त्याग देता है तो वह सुख का
अनुभव करता है।ज् यानी सारा खेल
इच्छा, आसक्ति अथवा अपने मन का
है, खुद को बुराई से दूर कर सुख प्राप्त
करने का है।
तन नहीं, मन हो सुंदर
प्रख्यात दार्शनिक ओशो ने कहा था,
च्तुम प्लास्टिक सर्जरी करवा सकते
हो, तुम सुंदर चेहरा बनवा सकते हो,
सुंदर आंखें, सुंदर नाक, अपनी चमड़ी
बदलवा सकते हो, अपना आकार
बदलवा सकते हो। लेकिन इससे
तुम्हारा स्वभाव नहीं बदलेगा। भीतर
तुम लोभी बने रहोगे, वासना से भरे
रहोगे, हिंसा, क्रोध, ईष्र्या, शक्ति के
प्रति तुम्हारा पागलपन भरा रहेगा। इन
बातों के लिए प्लास्टिक सर्जन कुछ
कर नहीं सकता।ज् इन शब्दों के साथ
ओशो तन को नहीं, मन को सुंदर रखने
की बात करते हैं। भीतर की बुराइयों
से निजात पाने की शिक्षा देते हैं।
सद्गुण की महक
सद्गुणों की महक से कौन इंकार
कर सकता है। अच्छे कामों को हर
तरफ सराहा जाता है और बुरे काम
नुकसान कर जाते हैं। कभी-कभी तो
ऐसी हानि हो जाती है, जिसकी भरपाई
नहीं हो पाती। इस संदर्भ में गौतम बुद्ध
ने भी कहा है, च्पुष्प की सुगंध वायु
के विपरीत कभी नहीं जाती, लेकिन
मानव के सद्गुण की महक सब
ओर फैल जाती है।ज् स्वामी रामकृष्ण
परमहंस भी मायावी दुनियादारी को
दिल से निकाल देने का पक्ष लेते हैं।
वे कहते हैं, च्नाव जल में रहे तो ठीक
है, लेकिन जल नाव में नहीं रहना
चाहिए, इसी प्रकार साधक जग में रहे
लेकिन जग साधक के मन
में नहीं रहना चाहिए।ज् जब
तक हम दुनिया के झूठे प्रपंचों में फंसे
रहेंगे, तब तक जिंदगी में सुकून की
उम्मीद नहीं कर सकते।
क्या खोया, क्या पाया
एक बार महात्मा बुद्ध से किसी ने पूछा
कि ध्यान से आपने क्या पाया? तो
बुद्ध ने जवाब दिया, च्कुछ भी नहीं।ज्
प्रश्नकर्ता हैरान रह गया, तभी बुद्ध
बोले, च्लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि
ध्यान से मैंने क्या-क्या खोया है?
गुस्सा, बेचैनी, असुरक्षा, तनाव, मृत्यु
या बुढ़ापे का डर जैसी भावनाओं को
मैंने खुद से दूर कर दिया है।ज् महात्मा
बुद्ध के ये वचन साफ इंगित करते हैं
कि कुछ पाने से मन में छिपे विकारों
से छुटकारा पाना ज्यादा महत्वपूर्ण है।