उमंग का पर्व बैसाखी
नई फसल आने की खुशी की अभिव्यक्ति उमंग बनकर फूटती है, तो वह बैसाखी का पर्व बन जाता है।
बैसाखी का धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व तो सर्वविदित है ही, परंतु इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष आर्थिक है। चैत्र एवं वैशाख के सुहावने दिनों में हल्के नीले आसमान के नीचे पछुवा हवा के झोंकों में लहलहाती दूर-दूर तक फैली सुनहरी गेहूं की बालियों के अथाह समुद्र को देखकर किसान उल्लास से भर जाता है। उसी उल्लास की अभिव्यक्ति है-बैसाखी।
भारत के निवासियों का जीवन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही आश्रित रहा है। संस्कृत भाषा का एक शब्द है - कनक, जिसका अर्थ है-सोना। गेहूं किसान के लिए सोना ही तो है। किसान गेहूं से आई समृद्धि और उससे मिली खुशी को सबके साथ बांटने बैसाखी के मेले में आ जाता है।
बैसाखी मेले की बात ही निराली है।?एक ओर मदमस्त ताल पर थिरकते बिहू नर्तकों के पैर और दूसरी ओर ढोल की थाप पर नाचते भंगड़े-गिद्धे के गबरू-मुटियारे। वास्तव में बैसाखी भारत की सांस्कृतिक एकता का सबसे समर्थ प्रतीक है।
बैसाखी के साथ भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना भी जुड़ी हुई है। वर्ष 1699 में बैसाखी वाले दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ का सृजन किया था। गुरु जी ने देश, धर्म एवं मानवता की रक्षा के लिए पांच शीश मांगे। पांच सिख शीश दान करके पांच प्यारे बने और अमृत छक कर सिंह सजे। खालसा ने मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए लोक संघर्ष का आज्जन किया। इसलिए बैसाखी लोक शक्ति की प्रतीक भी है।
बैसाखी आर्थिक समृद्धि की खुशी तो दर्शाती ही है, सामाजिक समन्वय का पाठ भी पढ़ाती है। यही नहीं, यह पर्व हमें लोक संघर्ष के लिए एकजुट होने और राष्ट्र प्रेम हेतु समर्पित होने के लिए भी प्रेरित करता है।
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