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भारत की आत्मा से जुड़े जितने भी त्योहार हैं वे सभी इसी के सहारे चलते हैं

क्या यही है हमारी आस्था का सच? यह संवत्सर हमें आनंद और परंपरा के प्रवाह का शीतल स्पर्श बांटने आता है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 29 Mar 2017 02:11 PM (IST)Updated: Wed, 29 Mar 2017 02:17 PM (IST)
भारत की आत्मा से जुड़े जितने भी त्योहार हैं वे सभी इसी के सहारे चलते हैं
भारत की आत्मा से जुड़े जितने भी त्योहार हैं वे सभी इसी के सहारे चलते हैं

 जिस संवत्सर के आधार पर हमारा लोक जीवन चलता है और सारे पारंपरिक पर्व मनाए जाते हैं, वह है हमारा अपना संवत्सर यानी विक्रम संवत्सर। इसके साथ ही हमारा नववर्ष आरंभ होता है जो इसकी महत्ता को दर्शाता है। विक्रम संवत्सर का हमसे केवल बाहरी ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जुड़ाव भी है। जैन, बौद्ध तथा सिख परंपरा में भी तिथि, मास और वर्ष इसी संवत्सर के आधार पर चलते हैं।

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भारत की आत्मा से जुड़े जितने भी त्योहार हैं, वे सभी इसी संवत्सर के सहारे चलते हैं। ‘वाल्मीकि रामायण’ कहती है कि श्रीराम के धरती पर अवतरित होते समय ऐसा मौसम था, जिसे न तो अधिक सर्दी कहा जा सकता है और न ही अधिक गर्मी। श्रीराम का अवतार काल वसंत ऋतु की पवित्रता से गुंथे चैत्र मास में है। अब यदि हमारी काल गणना गड़बड़ाने लगती तो श्रीराम का जन्मदिन कभी हमें भीषण गर्मी में मनाना होता और कभी सर्दी में। जबकि सदियां बीत जाने पर भी आज तक ऐसा नहीं हुआ। आज भी होली और दीपावली जैसे त्योहार उसी समय मनाए जाते हैं जब फसलें कटने को तैयार होती है। यदि हमारी काल गणना चरमराई होती तो हमारे सारे त्योहारों का मूल स्वरूप ही नष्ट हो जाता। हमारे त्योहारों की सुदीर्घ परंपरा में काल निर्धारण का जो निश्चय है तो उसके भीतर छिपी है ऋषियों की अद्भुत गणितीय दृष्टि। भारतीय संवत्सर उस परंपरा का निर्वाह करता है, जिसमें बाहरीपन से दूर सांस्कृतिक समृद्धि का महाभाव छिपा है। यह संवत्सर हर बार नया मर्यादित यौवन धारण करके प्रकट होता है। यह संवत्सर हमें ऐसी आध्यात्मिक चेतना व ऊर्जा प्रदान करता है। यह ऊर्जा अर्थ और काम की नहीं, वरन सदा धर्म और मोक्ष की राह दिखाती है। संवत्सर के प्रारंभ में ही देवी के स्वरूप में कन्या पूजन से परंपरा ने नारी की सर्वोच्च सत्ता को शास्त्रीय आधार प्रदान किया है। संवत्सर के शुरू से ही नौ दिनों की साधना शुरू हो जाती है। घर-घर में ‘रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।’ की मंगल ध्वनि के साथ ही देवी से श्रद्धा, भक्ति और समर्पण की याचना की जाती है।

मगर परंपराओं को ढोते-ढोते हम मूल बात भूल गए। कन्या के चरण पखारेंगे। उसे दक्षिणा देंगे। उससे ज्ञान, शक्ति और शत्रुनाश का वर मांगेंगे। पर वही कन्या जब देवी का कोमल रूप धरकर धरती पर उतरना चाहेगी तो उसे कोख में ही मार डालेंगे। क्या यही है हमारी आस्था का सच? यह संवत्सर हमें आनंद और परंपरा के प्रवाह का शीतल स्पर्श बांटने आता है। 


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