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संतुलित मन वाला व्यक्ति ही विनम्र और अच्छा व्यवहार कर सकता है

मन को सुसंस्कृत बनाने में अपना ही आत्मनिरीक्षण सफल होता है। इस तथ्य को हमें गहराई के साथ हृदय से स्वीकार कर लेना चाहिए।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 10 Mar 2017 10:21 AM (IST)Updated: Fri, 10 Mar 2017 10:47 AM (IST)
संतुलित मन वाला व्यक्ति ही विनम्र और अच्छा व्यवहार कर सकता है
संतुलित मन वाला व्यक्ति ही विनम्र और अच्छा व्यवहार कर सकता है

 जीवन की सफलता में जितना सहायक मानसिक संतुलन होता है, उतना शायद अन्य कोई साधन ही उपयोगी

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सिद्ध हो सकता है। संतुलित मन वाला व्यक्ति ही विनम्र और अच्छा व्यवहार कर सकता है। उसी में वह विशेषता

होती है जो मैत्री को बढ़ाने और कटुता को घटाने में सहायक सिद्ध हो सके। शिष्टाचार की सामान्य सी भूल भी अन्य लोगों को खल जाती है और वे उसे अशिष्टता, अवमानना मान बैठते हैं। यह बात याद रखना चाहिए कि जिसके मित्र, शुभचिंतक, समर्थक, प्रशंसक अधिक होते हैं वह आगे बढ़ता है। जिसके निंदक, विरोधी अधिक होते हैं उसके  कामों में भी देरी होती है। सौजन्य ही वह कला है जो मित्र बढ़ाती है और विरोधीजनों को घटाती है। सज्जनता किसी के ऊपर अहसान करना नहीं, बल्कि इससे अपने लिए ही मनुष्य सम्मान और सहयोग का क्षेत्र विस्तृत करता है। इस बिना व्यय की विशिष्टता को अर्जित करने में एक ही प्रमुख कठिनाई है, मस्तिष्क को असामान्य स्थिति में आवेशग्रस्त या गया-गुजरा अनगढ़ स्तर का न रखना। जिसे अपने कार्य-व्यवहार में जनसंपर्क साधना होता है उसे उपहास, व्यंग्य, तिरस्कार की आदत छोड़ ही देना चाहिए।

इसके लिए शिष्टाचार के किसी विद्यालय में पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। मस्तिष्क को शांत और संतुलित बनाए रखने की विद्या से यह सामान्य स्वभाव स्वयं ही बन जाता है। जो अपने सेवक, स्वामी, मित्र, परिवारी, पड़ोसी आदि के प्रति अपनी ओर से शिष्टाचार का व्यवहार करता है, उसके प्रति न तो अन्याय हो सकते हैं और न ही कोई उसकीअवमानना कर सकता है। फलस्वरूप वह सदैव फायदे में ही रहता है। जो गलतियां हो चुकी हैं, उन्हीं पर सदा सोचते

रहने से मन अपने आपको अपराधी की स्थिति में पाता है और आत्मविश्वास खो बैठता है। ऐसी स्थिति में उचित यही है कि जिन भूलों का जिस रूप में परिमार्जन-प्रायश्चित हो सकता हो उसे किया जाए। शिक्षा अनुभवी लोगों से ली जा सकती है। जो मन को निरंतर साथ रहने वाला फलदायी देवता मानते रहे हैं और जिन्होंने आत्म परिष्कार के आधार पर उत्थान किया है, उन्हीं की सलाह उचित है। जो अनीति अपनाने की सलाह देते हैं, उनसे बचकर रहना ही श्रेयस्कर है। मन को सुसंस्कृत बनाने में अपना ही आत्मनिरीक्षण सफल होता है। इस तथ्य को हमें गहराई के साथ हृदय से स्वीकार कर लेना चाहिए।


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