अहंकार ही माया है
जब तक हमारे मन में अहंकार है, हमें ईश्वर दिखाई नहीं देता। अहंकार ही माया है, जिसका पर्दा हटते ही सब प्रकाशित हो जाता है..। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का चिंतन
अधिकतर लोग ईश्वर की सत्ता को मानते हैं, फिर क्या वजह है कि लोग यह मानते हुए भी उसे देख नहींपाते? इसका जवाब यह है कि उन लोगों को ईश्वर इसलिए दिखाई नहीं देता, क्योंकि माया का आवरण मनुष्य के ऊपर पड़ा होता है। जैसे सूर्य सबको प्रकाश और ऊष्मा देता है, लेकिन यदि वह बादलों से घिर जाए, तो अपना काम नहीं कर पाता। माया का पर्दा भी इसी प्रकार है। अब प्रश्न यह है कि यह माया है क्या? माया है हमारा अहंकार।
अहंकार के रूप में यह माया बिल्कुल सूर्य के सामने आ गए मेघ की तरह ही है। इसी के कारण हम ईश्वर को नहीं देख पाते। इसे इस तरह समझो कि अगर मैं अपने अंगोछे की ओट कर लूं, तो तुम मुझे नहीं देख सकते, लेकिन सच्चाई यह है कि मैं तुम्हारे बिल्कुल नजदीक हूं। इसी तरह ईश्वर भी हमारे बहुत निकट है, किंतु अहंकार रूपी आवरण के कारण हम उसे नहीं देख पाते। क्योंकि जब अहंकार रहता है, तब न ज्ञान होता है, न मुक्ति मिलती है।
अहंकार के कारण घमंड आता है। हांडी में रखे दाल, चावल, पानी या आलू को हम तभी छू सकते हैं, जब तक उसे आग पर न रखा जाए। जीव की देह भी हांडी की तरह है। धन, मान-सम्मान, विद्या-बुद्धि, जाति-कुल आदि उन दाल, चावल और आलुओं की तरह हैं। अहंकार वह आग है, जो इनमें शामिल होकर उन्हें तप्त कर देती है। अहंकार रूपी अग्नि के कारण जीव गर्म (गर्वीला या घमंडी) होता है।
मैं (स्वयं को महत्वपूर्ण समझने) का भाव जब तक पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता, मनुष्य को मुक्ति नहींमिलती। उसकी गति बछड़े जैसी हो जाती है। जन्मते ही वह हम्बा (हम) करके बोलता है। उसे हल में जोता जाता है, तो कभी वह कसाई का शिकार बन जाता है, उसकी खाल से जूते और ढोल बनाए जाते हैं। तब भी उसका अहंकार नहीं जाता। ढोल को पीटा जाता है, तब भी वह हम-हम करके ही बजता है। जब तांत बनती है, तब धुनिया उससे रूई धुनता है, तब वह तुम-तुम करके बजती है। वह हम से तुम पर आ जाता है। मैं से तुम पर आ जाने से ही अहंकार से मुक्ति मिलती है।
अहंकार या मैं दो तरह का होता है। एक कच्चा मैं और दूसरा पक्का मैं। मैं जो कुछ देखता, सुनता या महसूस करता हूं, उसमें कुछ भी मेरा नहीं है, यहां तक कि यह शरीर भी मेरा नहीं है। मैं नित्यमुक्त हूं, ज्ञान-स्वरूप हूं। यह विचार पक्का मैं है, यह भक्ति और ज्ञान का मैं है, जो सकारात्मक है। वहीं यह मेरा मकान है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरा शरीर है, यह कच्चा मैं है। यही माया है। जो अहंकार मनुष्य को कामिनी-कंचन में आबद्ध करता है, वह नकारात्मक है।
दरअसल, मैं और मेरा, यह अज्ञान का भाव है। तुम और तुम्हारा- यही ज्ञान है। जो सच्चा भक्त होता है, वह कहता है- जो कुछ भी कर रहे हो, वह तुम्हीं कर रहे हो, मेरा तो कुछ भी नहीं है। मैं तो तुम्हारे लिए कर्म कर रहा हूं।
मैं सिर्फ एक छोटा-सा शब्द है, इसे दूर करना अत्यंत कठिन है, लेकिन असंभव भी नहीं। शंकराचार्य का एक शिष्य था। वह कई दिनों से उनकी सेवा में था, लेकिन आचार्य ने उसे कोई उपदेश नहीं दिया था। एक दिन शंकराचार्य अपने आसन पर बैठे थे। किसी के आने की आहट हुई। आचार्य ने पूछा - कौन है? शिष्य बोला- मैं। तब आचार्य ने कहा- यदि तुझे मैं इतना ही प्रिय है, तो तू इसे और भी बढ़ा ले। अर्थात सारा जगत मैं ही हूं, यह धारणा कर ले। या फिर इसे पूरी तरह त्याग दे।
यदि कोशिश करने से मैं नहीं जाता, तो उसे दास बना लो। इस भाव में रहो कि मैं दास हूं। ईश्वर का दास हूं, भक्त हूं। ऐसे मैं में कोई दोष नहीं। मिठाई खाने से अम्लदोष होता है, पर मिश्री इसका अपवाद है। इसी तरह यह मैं बुरा नहीं। दास का मैं, भक्त का मैं और बालक का मैं जलराशि पर खींची हुई रेखा के समान हैं, जो ज्यादा देर नहीं टिकते।
जीव और बहृम में भेद बस इसीलिए है कि उनके बीच मैं खड़ा हुआ है। पानी में लाठी डाल दी जाए, तो पानी दो भागों में बंटा हुआ दिखाई देता है। अहं या मैं ही वह लाठी है। इसे उठा लो, तो पानी एक हो जाएगा। जीव और ब्रहृम् आपस में मिल जाएंगे।
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