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जब हम कुछ देख लेते है तो उसे मान लेते है ऐसा क्‍यों

विपश्यना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। यह ईश्वर के प्रति समर्पण है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 21 Apr 2017 11:51 AM (IST)Updated: Fri, 21 Apr 2017 11:51 AM (IST)
जब हम कुछ देख लेते है तो उसे मान लेते है ऐसा क्‍यों
जब हम कुछ देख लेते है तो उसे मान लेते है ऐसा क्‍यों

विपश्यना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। यह ईश्वर के प्रति समर्पण

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है। जितने व्यक्ति विपश्यना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना शब्द

का अर्थ होता है : देखना, लौटकर देखना। बुद्ध कहते थे : इहि पस्सिको, आओ और देखो। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। इस पृथ्वी पर बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है, जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है।

बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है। बुद्ध कहते : जिसने देख लिया, उसे मान ही लेना पड़ता है। बुद्ध के देखने और दिखाने की जो  प्रक्रिया है, उसका नाम है विपश्यना। विपश्यना बड़ा सीधा-सरल प्रयोग है। अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है। श्वास से ही आपकी आत्मा और देह जुड़ी है। श्वास सेतु है। यदि आप श्वास को ठीक से देखते रहें, तो अनिवार्य और अपरिहार्य रूप से स्वयं को शरीर से भिन्न जान पाएंगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी है कि आप अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाएं। जो श्वास को देखेगा, वह उससे भिन्न हो गया और जो श्वास से भिन्न हो गया, वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया। शरीर सबसे दूर है, उसके बाद श्वास है। उसके बाद आप स्वयं हैं। अगर आपने श्वास को देखा, तो शरीर तो अनिवार्य रूप से छूट गया। शरीर से छूट

जाएं, तो उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी जगत में न तो ऊंचाइयां हैं, न गहराइयां हैं। शेष तो व्यर्थ की आपाधापी है।


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