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स्वामी निर्मलानंद की महासमाधि कथा

ईश्वर ने इस दुनिया को अव्यवस्थित नहीं किया है। सबसे पहले आप खुद को बदलिए, फिर आपके आसपास की दुनिया अपने आप बदल जाएगी।

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 31 Jan 2017 12:59 PM (IST)Updated: Tue, 31 Jan 2017 01:07 PM (IST)
स्वामी निर्मलानंद की महासमाधि कथा
स्वामी निर्मलानंद की महासमाधि कथा

पढ़ते हैं एक ऐसे संत की कथा जिन्होंने शरीर त्यागने से कुछ समय पहले ही अपने महासमाधि लेने की घोषणा कर दी थी। उन्होंने इसका साल और महीना तय कर दिया था। आत्महत्या की आशंका से उनके आश्रम में पुलिस तैनात थी, पर वे दो कांस्टेबल और करीब चालीस लोगों के सामने आ कर बैठे और वहीं शरीर त्याग दिया।

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श्री निर्मलानंद का जीवन

निर्मलानंद कर्नाटक के सरल और महान संत थे, जिनकी सादगी को इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने कभी एक फल तक नहीं तोड़ा, अपनी पूजा के लिए एक फूल तक नहीं तोड़ा, इसलिए कि पेड़ को कष्ट न हो।

वे रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, हैनरी थौरियू, लिओ टॉलस्टॉय और अलबर्ट श्वेजर जैसे लोगों से काफी प्रभावित थे। केरल के मालाबार क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले स्वामी निर्मलानंद का जन्म 2 दिसंबर 1924 को हुआ था। उन्होंने चौदह साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी और ब्रिटिश सेना की डाक सेवा का कार्यभार संभालने के लिए घर छोड़ दिया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान असैनिक के तौर पर काम करते हुए उन्होंने यूरोपीय देशों का भ्रमण किया। इसके बाद उन्होंने अमेरिका, यूरोप, रूस और जापान जैसे देशों की यात्रा भी की और दर्शन व धर्म के बारे में गंभीरता से जाना। वे रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, हैनरी थौरियू, लिओ टॉलस्टॉय और अलबर्ट श्वेजर जैसे लोगों से काफी प्रभावित थे। उन्होंने भारत के दो सौ से ज्यादा आश्रमों का दौरा भी किया। लेकिन इतना घूमने के बाद भी उन्हें लगा कि उन्होंने जो भी अध्ययन किया है, उससे कोई आत्म-अनुभूति नहीं हुई है, बल्कि मन में और हलचल ही पैदा हो गई है, मन और अशांत ही हो गया है। उनकी इसी जागरूकता ने उनके अशांत मन को शांत किया। लेकिन यह घटना भारत में नहीं घटी, बल्कि हॉलैंड के एम्सटर्डम में घटी।

जीवन के अनुभव और संन्यास

स्वामी निर्मलानंद की बदकिस्मती यह रही कि वह तीन बड़ी त्रासदियों के मूक गवाह बने – द्वितीय विश्व युद्ध, विभाजन और भारत-पाकिस्तान युद्ध।

उन्होंने उन लोगों को पढ़ाया और अलग-अलग विषयों का ज्ञान दिया। वे लोग भी आश्रम में जो कुछ भी काम कर सकते थे, करते थे। उन्होंने महसूस किया कि अगर व्यक्ति अपने अंतर्मन में झांके तो वह यह देख पाएगा कि उसके अपने ही मन में विरोधी विचारों, उत्तेजनाओं और इच्छाओं के बीच लगातार एक युद्ध चलता रहता है। यह द्वंद्व उन सब लड़ाइयों का योग है, जो कि किन्हीं दो देशों के बीच भडक़ती हैं। संन्यास लेने के बाद स्वामी निर्मलानंद बिलीगिरि की पहाडिय़ों के एक शांत से जंगल में जाकर बस गए, जहां उन्होंने 1964 में एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा संरक्षित कर लिया। वहां वह सोलिगा जाति के लोगों के संपर्क में आए। उन्होंने उन लोगों को पढ़ाया और अलग-अलग विषयों का ज्ञान दिया। वे लोग भी आश्रम में जो कुछ भी काम कर सकते थे, करते थे। जब भी वहां बिजली या पानी की आपूर्ति की समस्या होती या दूरदराज के क्षेत्रों में डाक या आवागमन के साधनों में देरी होती तो संबंधित अधिकारियों के पास जाकर स्वामी उनसे बात करते और सोलिगा जाति के लोगों के लिए सब कुछ ठीक करने में जुट जाते।

स्वामी जी कई सालों तक मौन में रहे। वह दूध या दूध से बने पदार्थों, चाय, कॉफी, तले-भुने खाने का इस्तेमाल नहीं करते थे। वह केवल खाने योग्य जंगली शाक-पात और रोटी का सेवन करते थे। वो अपनी रोटी खुद ही बनाते थे और अपने मेहमानों को हमेशा खुद ही खाना पकाकर खिलाते थे। स्वामी निर्मलानंद को रीति-रिवाजों में बिल्कुल विश्वास नहीं था, लेकिन उन्होंने अपने भक्तों को अपने विश्व शांति निकेतन आश्रम के परिसर में बने छोटे से मंदिर में पूजा-अर्चना करने से कभी नहीं रोका।

सद्‌गुरु और स्वामी ने समय साथ बिताया

‘‘स्वामी निर्मलानंद कर्नाटक के बी.आर. के पहाड़ों में रहते थे। बी.आर. का पूरा मतलब है बिलीगिरि रंगनाथ बिट्टा। ‘बिट्टा’ का मतलब होता है पहाड़। रंगनाथ का प्रयोग इसलिए हुआ क्योंकि वहां रंगनाथ स्वामी का मंदिर स्थित है।

जब वह 73 साल के हुए तो उन्होंने अपना शरीर त्यागने का निश्चय किया। मुझे पत्र लिखकर उन्होंने कहा कि कृपया आप आ जाइए, मैं आपसे बात करना चाहता हूं। बिलीगिरि कन्नड़ का शब्द है जिसका अर्थ है- सफेद पहाड़। ‘वेलिंगिरि’, जिसकी तलहटी में ईशा योग केंद्र स्थित है, का मतलब भी सफेद पहाड़ ही होता है। बहुत लंबे समय तक वह मेरे बेहद करीबी रहे। जब तक मैं यह जानता कि मैं योगी हूं, उससे पहले वो यह पहचान गए थे। अपने चार एकड़ में फैले आश्रम में वह चौदह साल तक मौन व्रत में रहे। इस दौरान वह कभी इससे बाहर नहीं आए। वह बिल्कुल बोलते नहीं थे, लेकिन सारे विश्व में फैले अपने लोगों के लिए हर रोज सौ पत्र लिखते थे। हर जगह उनके संबंध थे। लोग उनके पास आते थे, इसलिए वह हर एक के लिए पत्र लिखा करते थे। कुल मिलाकर वह बहुत सादे तरीके से रहते थे।

जब वह 73 साल के हुए तो उन्होंने अपना शरीर त्यागने का निश्चय किया। मुझे पत्र लिखकर उन्होंने कहा कि कृपया आप आ जाइए, मैं आपसे बात करना चाहता हूं। मैं उनके पास गया और हमने कई चीजों के बारे में बात की। वह मुझसे अपना प्रश्न लिखकर अपनी बात कहते और मैं उन्हें बोलकर जवाब देता। इस तरह की बातचीत पहले कभी नहीं हुई थी। इस तरह के प्रश्न इससे पहले न तो किसी ने पूछे थे और न ही ऐसी बातचीत कभी हुई। वह बहुत ही सीधे-सादे संत थे, लेकिन उन्हें शरीर के क्रियाकलापों के बारे में बहुत कुछ पता नहीं था, इसलिए वह उसके बारे में मुझसे बात कर रहे थे।

महासमाधि लेने का निश्चय

1996 के जनवरी महीने में उन्होने अपना शरीर छोडऩे का निश्चय किया और घोषणा कर दी कि वह महासमाधि ले रहे हैं। इस बात से चारों तरफ हंगामा मच गया।

जब उनका शरीर छोडऩे का समय नजदीक आया तो वह बाहर निकलकर एक छोटे से चबूतरे पर बैठ गए। उन दोनों सिपाहियों सहित उस समय आश्रम में लगभग 40 लोग थे। वह उनके सामने आकर बैठ गए और वहीं शरीर त्याग दिया। कर्नाटक के तर्कवादी समाज ने उन पर यह कहते हुए केस दायर कर दिया कि यह आदमी आत्महत्या करने जा रहा है। ऐसे में उनके आश्रम में दो सिपाही तैनात कर दिए गए। यह सब सुनकर जब मैं उनके आश्रम पहुंचा तो वो मुझसे लिपट गए और बोले कि मैंने कभी भी पेड़ से एक फूल तक नहीं तोड़ा। यहां तक कि अपनी पूजा के लिए भी कभी मैंने एक फूल नहीं तोड़ा और इन लोगों ने मेरे आश्रम में पुलिस तैनात कर दी। इस अपमान ने उन्हें बहुत चोट पहुंचाई। उन्होंने कभी पेड़ से फल तक नहीं तोड़ा, क्योंकि वह पेड़ को कष्ट नहीं देना चाहते थे। जब फल खुद ही नीचे गिर जाता था, तभी वह उसे खाते थे वरना उसे छूते तक नहीं थे। मैंने उनसे कहा कि आप परेशान न हों। पुलिस आपका क्या कर लेगी? जब उनका शरीर छोडऩे का समय नजदीक आया तो वह बाहर निकलकर एक छोटे से चबूतरे पर बैठ गए। उन दोनों सिपाहियों सहित उस समय आश्रम में लगभग 40 लोग थे। वह उनके सामने आकर बैठ गए और वहीं शरीर त्याग दिया।’’ – सद्‌गुरु

स्वामी निर्मलानंद उवाच

इस सृष्टि में किसी सुधार की जरूरत नहीं है। ईश्वर ने इस दुनिया को अव्यवस्थित नहीं किया है। सबसे पहले आप खुद को बदलिए, फिर आपके आसपास की दुनिया अपने आप बदल जाएगी।

हमारा हर दिन एक उत्सव की तरह होना चाहिए, उत्सव – गीत, नृत्य और अपनी जागरूकता का। गीत के जरिए हमें नाद ब्रह्म की प्राप्ति होती है। किसी गीत या कविता को कोमलता और मिठास के साथ गाने से हमें उस परम शक्ति के साथ सुर मिलाने में मदद मिलती है।

समय और स्थान दोनों मिथ्या हैं और दोनों ही हमारे दिमाग की उपज हैं। हमें नामरहित, स्थानरहित और समयरहित वास्तविकता में जीना सीखना चाहिए।

मुस्कुराहट बताती है कि हमारा लक्ष्य खुशी है। विवेक मेरे लिए केवल शब्द नहीं है, बल्कि मन की ताजगी और रिक्तता है।

हमारा आज का समाज उस पिंजरे की पॉलिश करने और सजावट करने में लगा है, जिसमें आदमी को कैद करके रखा गया है। सद्‌गुरु


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