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निर्लिप्तता का अर्थ है सांसारिक मायामोह से दूर रहना

निर्लिप्तता का अर्थ है सांसारिक मायामोह से दूर रहना। यह कर्म के बंधन से निवृत्ति भी है। गीता में एक अपूर्व युक्ति बताई गई है, जिससे मनुष्य शुद्ध, पवित्र, निर्लिप्त या निष्कलंक बन सकता है। यह युक्ति है कर्र्मो को ब्रह्म में अर्पण करना यानी सब कर्म परमेश्वर को समर्पित

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 28 Aug 2015 08:59 AM (IST)Updated: Fri, 28 Aug 2015 09:01 AM (IST)
निर्लिप्तता का अर्थ है सांसारिक मायामोह से दूर रहना

निर्लिप्तता का अर्थ है सांसारिक मायामोह से दूर रहना। यह कर्म के बंधन से निवृत्ति भी है। गीता में एक अपूर्व युक्ति बताई गई है, जिससे मनुष्य शुद्ध, पवित्र, निर्लिप्त या निष्कलंक बन सकता है। यह युक्ति है कर्र्मो को ब्रह्म में अर्पण करना यानी सब कर्म परमेश्वर को समर्पित करके आसक्ति रहित होकर व्यवहार करना। ऐसा करने से वह व्यक्ति इसी प्रकार निर्लिप्त रहता है, जैसे तालाब में खिला हुआ कमल का पुष्प कीचड़ और गंदगी से निर्लिप्त रहता है। मनुष्य को यदि परमेश्वर को प्राप्त करने की अभिलाषा है, तो उसे परमेश्वर के समान बनना होगा। ईश्वर के समान गुण धर्मवाला बनना ही अंतिम सिद्धि होगी। परमेश्वर सत-चित-आनंद-स्वरूप है, वैसा ही बनना होगा।

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जो मनुष्य गुणमयी प्रकृति और परमेश्वर की शक्ति को महसूस करता है, उसे कर्म करते हुए भी निर्लिप्तता सिद्ध करने का उपाय ज्ञात होता है और फिर उसके पुनर्जन्म लेने का कारण शेष नहीं रहता। मनुष्य जो भी कर्म करे, वह परमेश्वर के लिए करे और उसके फल-भोग की इच्छा न रखे। अविनाशी परमात्मा अनादि और निगरुण होने के कारण शरीर में रहते हुए भी न कुछ करता है और न किसी से लिप्त होता है। कठोपनिषद में कहा गया है कि जैसे सूर्य सब पदाथोर्ं को प्रकाशित करने के कारण सब का चक्षु जैसा है, फिर भी किसी से संसर्ग होने के कारण दोषयुक्त नहीं होता है, वैसे ही सब जीवों की अंतरात्मा एक जैसी है।

इसीलिए वह लोगों के दोषों से दोषी या दुखों से दुखी नहीं होती। कर्म-बंधन को दूर करने के उपायों पर विचार करते हुए गीता में कहा गया है कि जो भोगों में आसक्त नहीं है, जिसका चित्त ज्ञान से पूर्ण है और जो यज्ञ के लिए कर्म करता है, उस मुक्त व्यक्ति के सब कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो समत्व रूपी योग का आचरण करता है, जिसका हृदय शुद्ध है, जिसने अपने मन को जीत लिया है, जिसने इंद्रियों का संयम किया है और जो सब प्राणी को अपनी आत्मा के समान अनुभव करते हुए निर्लिप्त रहता है, उसे हम सिद्ध पुरुष समझ सकते हैं, उसी को मुक्त कह सकते हैं। ऐसा मुक्त व्यक्ति सुखों और दुखों के पार चला जाता है। भौतिक भोग-विलास उसे आकर्षित नहीं कर पाते और न ही वह सांसारिक दुखों से दुखी होता है।


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