इसी संतुलन को ही मुक्ति या आध्यात्मिक विकास कहते हैं
बस जो समाज के लिए उपयोगी है, उसे ही ऊपर उठाने के लिए प्रयास करना चाहिए। देवासुर संग्राम की पौराणिक कहानी युगों-युगों से कही जाती रही है
By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 24 Mar 2017 02:38 PM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 03:33 PM (IST)
समाज में इस प्रकार का भी चिंतन होना चाहिए, जो अयोग्यता और गरीबी के बीच अंतर स्पष्ट कर सके, ताकि योग्यता का सही उपयोग हो सके। समाज में इस प्रकार के विचार-मंथन की मथानी होनी चाहिए, जिसे चलाने
पर मक्खन के रूप में योग्यता और प्रतिभा ऊपर आ जाए और जो समाज के लिए उपयोगी साबित हो।
अनुपयोगी तो कुछ है ही नहीं। बस जो समाज के लिए उपयोगी है, उसे ही ऊपर उठाने के लिए प्रयास
करना चाहिए। देवासुर संग्राम की पौराणिक कहानी युगों-युगों से कही जाती रही है। विचारणीय बात यह है
कि संसार और समाज से बुराइयों को खत्म करने के लिए बार-बार भगवान को क्यों अवतार लेना पड़ता
है? इंसान में भी तो चारित्रिक विकास हो सकता है? जब तक छाछ मक्खन के महत्व को नहीं समझेगा,
तब तक वह मक्खन के भाव न बिक पाने की भावना से दुखी और व्यथित ही होता रहेगा।
दूसरी ओर, मक्खन अपनी विशेषता को छाछ से जोड़कर उसे अपना जनक स्वीकार नहीं कर लेगा, तब तक दोनों
एक-दूसरे की विशेषता और दूसरे की मात्रा को लेकर लड़ते ही रहेंगे। लड़ाई में जो जीतता है, वह किसी
की जीत नहीं, बल्कि किसी की हार थी। क्योंकि हारने वाले में अभी बिना अपना दोष दिखे, जीतने की वासना शेष है। और वह वासना नया जामा पहन कर पुन: समाज में आती रहेगी। दोष और वासना को समाप्त करने
के लिए हमें अध्यात्म से जुड़ना पड़ेगा। संसार के विकास में कर्ता मनुष्य है, तो अध्यात्म के विकास में कर्ता ईश्वर। कर्ता के रूप में ईश्वर के साथ का एहसास होने पर हमें शांति, स्फूर्ति, संतोष और हर्ष मिलता है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि हम अब आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर हैं।
आध्यात्मिक मार्ग में लक्ष्य विषयक न होकर उसके माध्यम अर्थात मार्ग को महत्व दिया जाता है। महत्व यह नहीं कि हम सफल हुए या असफल, अपितु महत्व इसका अधिक है कि हम क्या करते हुए सफल या असफल हुए। हमें न सिर्फ भोग की प्रवृत्ति, बल्कि दूसरों से छीनने की वृत्ति का भी त्याग करना होगा। तभी व्यक्तित्व में संतुलन स्थापित हो पाएगा। इसी संतुलन को ही मुक्ति या आध्यात्मिक विकास कहते हैं।
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