जीव को स्वयं न तो जन्म चुनने का अधिकार है और न ही मृत्यु प्राप्त करने का
परमात्मा किसी के नाश का भागीदार नहीं बनता। वह डंडे से किसी का सिर नहीं फोड़ता, मनुष्य स्वयं ऐसा काम करने लगता वह विकारों से ग्रस्त हो जाता है।
जीवन और मृत्यु परमात्मा के हाथ में है। जीव को स्वयं न तो जन्म चुनने का अधिकार है और न ही मृत्यु प्राप्त करने का। जीवन जीने के बाद जब जीव मृत्यु में प्रवेश करता है तो उस अवस्था में उसे फिर जन्म लेने के लिए हजारों, लाखों वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, लेकिन जो सिद्ध पुरुष परमात्म-तत्व में लीन हो जाता है उसे पुन: गर्भ चुनने का अधिकार रहता है। वह स्वेच्छा से गर्भ चुन सकता है, लेकिन अन्य जीव वैसा नहीं कर सकते।
जीव केवल जी सकता है, जीवन पर उसका कोई अधिकार नहीं होता। जब मृत्यु का काल आता है तो परमात्मा उसे अपने हाथों मृत्यु नहीं देता। वह जीव को स्वयं ऐसी प्रेरणा दे देता है कि वह स्वयं अपने आचरण से, अपने व्यवहार से जीवन को नष्ट कर देता है। बुद्धि विवेक से नियंत्रित होती है। जब जीव का अंतकाल आता है, तो उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। उसके शरीर से तेज नष्ट हो जाता है। शक्ति क्षीण हो जाती है और विचार स्थिर नहीं रह जाता। वह स्वयं ऐसा आचरण करने लगता है कि उसका जीवन अशांत हो जाता है। काम, वासना व क्रोध के कारण उसका सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता, फलत: उसका जीवन स्वयं काल के गाल में प्रवेश कर जाता है।
देवताओं को पराजित करने वाले रावण का जब अंतकाल आया तो उसने नैतिक धर्म छोड़ दिया। उसका बल नष्ट हो गया, बुद्धि व विचार क्षीण हो गए और वह काल के चंगुल में फंस गया। परमात्मा किसी के नाश का भागीदार नहीं बनता। वह डंडे से किसी का सिर नहीं फोड़ता, लेकिन मनुष्य स्वयं ऐसा काम करने लगता है, वह विकारों से ग्रस्त हो जाता है।
यदि मनुष्य निर्मल मन से परमात्मा को स्वयं को समर्पित कर दे तो बात बनते देर नहीं लगती। श्रीराम ने तो स्वयं कहा है कि मेरे लिए सबसे प्रिय वही भक्त है, जो छल-छिद्र और कपट से दूर है। भगवान भोले लोगों के लिए भोले होते हैं और चालाक लोगों के लिए भाले होते हैं। प्रेम से मांगने पर भगवान शिव ने रावण को सोने की लंका दी पर दुष्टता करने पर उसका अंत भी किया व उसकी सोने की लंका भी गई। इसलिए मनुष्य को चतुराई करनी चाहिए, लेकिन वह चतुराई लोकहित और जनकल्याण के लिए होनी चाहिए।